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सम्यग्दर्शन : भाग-5]
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नहीं है; उसे अपने आत्मा में ही रस है। तीव्र पाप परिणाम अब उसे नहीं आते; उसके आहारादि भी योग्य मर्यादावाले होते हैं। विषयातीत चैतन्य की शान्ति के समक्ष अब उसे विषय-कषयों का जोर टूट गया है। चैतन्यप्राप्ति के महान उल्लास से उसका जीवन भरपूर होता है। वीतराग-वाणीरूपी समुद्र के मन्थन से जिसने शुद्धचिद्रूप रत्न प्राप्त किया है-ऐसा वह सम्यग्दृष्टि जीव, चैतन्य-प्राप्ति के परम उल्लास से कहता है कि अहो! मुझे सर्वोत्कृष्ट चैतन्यरत्न प्राप्त हुआ। सर्वज्ञ भगवान की वाणीरूपी श्रुतसमुद्र का मन्थन करके किसी भी प्रकार से / विधि से मैंने पूर्व में कभी नहीं प्राप्त किया हुआ और परमप्रिय ऐसा शुद्ध चैतन्यरत्न प्राप्त कर लिया है। चैतन्यरत्न की प्राप्ति से मेरी मति स्वच्छ हो गयी है। इसलिए मेरे चैतन्य के अतिरिक्त अन्य कोई द्रव्य मुझे मेरा भासित नहीं होता।
इस चैतन्यरत्न को जान लेने के पश्चात, अब मुझे जगत में मेरे चैतन्यरत्न से उत्कृष्ट दूसरा ऐसा कोई पदार्थ नहीं कि जो मेरे लिये रम्य हो। जगत में चैतन्य से श्रेष्ठ दूसरा कोई वाच्य नहीं, दूसरा कोई ध्येय नहीं, दूसरा कोई श्रवणयोग्य नहीं, दूसरा कोई प्राप्य नहीं, दूसरा कोई आदेय नहीं—ऐसा सर्वश्रेष्ठ चैतन्यतत्त्व मैंने प्राप्त कर लिया है। वाह ! कैसा अद्भुत है मेरा चैतन्यरत्न!! __ अहो! मेरा चैतन्यतत्त्व ऐसा सुन्दर, परम आनन्द से भरपूर, उसमें राग की आकुलता कैसे शोभे? सुन्दर चैतन्यभाव को मलिन राग के साथ एकता कैसे हो? जैसे सज्जन के मुँह पर माँस का लपेटा शोभा नहीं देता; उसी प्रकार सत् ऐसे चैतन्य पर, राग का लपेटा शोभा नहीं देता; चैतन्यभाव में राग का कर्तृत्व नहीं होता
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