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________________ www.vitragvani.com 138] [सम्यग्दर्शन : भाग-5 के किसी पदार्थ में या राग में कहीं नहीं है। ऐसी अन्तर अनुभूति द्वारा धर्मी जीव, आत्मा की सिद्धि को साधता है। देखो! भगवान आत्मा को साधने की यह अलौकिक विधि! महाविदेह में सीमन्धर तीर्थंकर बिराज रहे हैं, वहाँ जाकर दिव्यध्वनि में से यह उत्कृष्ट माल लाकर, भगवान के आड़तियारूप से कुन्दकुन्दस्वामी भव्य जीवों को प्रदान करते हैं। इसलिए हे जीवों! तुम भगवान के इस सन्देश को आनन्द से स्वीकार करके जीवन में उतारो। अहो! चैतन्यतत्त्व तो ऐसा सरस... रागरहित शोभित हो रहा है ! उसे देखकर सर्व प्रकार से प्रसन्न होओ। अन्दर चैतन्य पाताल में शान्तरस का सम्पूर्ण समुद्र भरा है; वह इतना महान है कि उसे देखते ही सर्व विकल्प टूट जाते हैं और ज्ञान की अतीन्द्रिय किरणों से जगमगाता आनन्द प्रभात खिलता है। ____ अहा! जिसे ऐसा महान आत्मा साधना है, उसे जगत की प्रतिकूलता कैसी? आत्मार्थी जीव, संयोग के आधार से हताश होकर बैठा नहीं रहता। वह जानता है कि बाह्य में अनन्त प्रतिकूलता के ढेर हों तो भी मेरे आनन्द का धाम महान चैतन्यतत्त्व है, वह तो मुझे अनुकूल ही है। उसमें जरा भी प्रतिकूलता नहीं। अपने आनन्दधाम में अन्दर उतरकर वह धर्मी, मोक्ष के परम सुख का अनुभव करता है। चैतन्य को जानकर स्वघर में आया, वहाँ उसके अनन्त काल के परिभ्रमण की थकान उतर गयी है। सम्यग्दर्शन होने के पश्चात् आत्मसन्मुख जीव का वर्तन बाह्य में कदाचित् पहले जैसा लगे परन्तु अन्दर में तो आकाश-पाताल जैसा बड़ा अन्तर पड़ गया है। अब उसे संसार में या राग में रस Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007772
Book TitleSamyag Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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