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[सम्यग्दर्शन : भाग-5
का चिन्तवन करता है, अन्दर उसे देखने का (पहिचानने का) प्रयत्न करता है। तुरन्त थोड़े दिनों में ही उसे न दिखे (न पहिचान में आवे) तो भी आलस किये बिना, रुचि और धुन छोड़े बिना वह दृढ़ प्रयत्न चालू ही रखता है।
पुण्यमय भावों से जीव को स्वर्गादि की प्राप्ति होती है और पापमय भावों से नरकादि गति की प्राप्ति होती है। संसार की चारों गतियों से छूटने के लिये वह मुमुक्षु, पुण्य-पाप दोनों से रहित ऐसे ज्ञानस्वभाव का निर्णय करता है। वह जानता है कि विकल्प से निर्णय, वह सच्चा निर्णय नहीं है; ज्ञान में वस्तुस्वभाव का स्वीकार आकर जो निर्णय हो, वही सच्चा निर्णय है । वह निर्णय कब होता है ? कि ज्ञानपर्याय, राग से पृथक् होकर, अन्तर्मुख होकर अपने स्वभाव को अखण्ड-अखण्डस्वरूप से लक्ष्य में ले, तभी आत्मस्वरूप का सच्चा निर्णय होता है और ऐसे निर्णयपूर्वक ज्ञान का झुकाव शुद्धात्मा की ओर ढलता है। इस प्रकार आत्मसन्मुख होने से ही सिद्धि का मार्ग खुलता है। सिद्धपद की आराधना
आत्मा के अन्दर ही होती है। ___ आत्मा स्वयं ज्ञान-दर्शन-सुखस्वभावी महान पदार्थ है। उसमें कोई क्लेश नहीं। अहा! निरालम्बी आत्मवस्तु! उसे साधनेवाले सन्तों की दशा भी अन्तर में बहुत निरालम्बी होती है। वे कहते हैं कि हे जीव! तुझे परमेश्वर को देखना हो और परमेश्वर होना हो तो परमेश्वर की शोध अन्तर में ही कर। परमेश्वरपना आत्मा में ही है। इस प्रकार मुमुक्षु जीव अन्तरशोध में वर्तता है।
जीवादि पदार्थों के स्वरूप की यथार्थ श्रद्धा करनेवाला
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