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सम्यग्दर्शन : भाग-5]
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सम्यग्दर्शन, वह धर्म का मूल है। वह प्राप्त होने पर जगत् में ऐसा कोई सुख ही नहीं कि जो जीव को प्राप्त न हो; इसलिए सम्यग्दर्शन को ही सर्व सुख का मूलकारण जानकर उसे सेवन करो। इस संसार में वही पुरुष श्रेष्ठ है, वही कृतार्थ है और वही पण्डित है कि जिसके हृदय में निर्दोष सम्यग्दर्शन प्रकाशित है । सम्यग्दर्शन ही सिद्धि प्रसाद का प्रथम सोपान है । मोक्षमहल की प्रथम सीढ़ी सम्यग्दर्शन है; वही दुर्गति के द्वार को रोकनेवाला मजबूत अवरोधक है, वही धर्म के वृक्ष का स्थिर मूल है, वही मोक्षपुरी का प्रवेश द्वार है और वही शीलरूपी हार के मध्य लगा हुआ श्रेष्ठ रत्न है; संसार की बड़ी बेल को वह मूल में से उखाड़ डालता है - ऐसी सम्यक्त्व की महिमा आत्मसन्मुख जीव जानता है; इसीलिए उसके लिए वह अत्यन्त पुरुषार्थ करता है । सम्यग्दर्शन होने पर अनन्त संसार का अन्त आ जाता है और अनन्त मोक्षसुख का प्रारम्भ होता है। जैसे शरीर के सर्व अंगों में मस्तक प्रधान है और चेहरे में नेत्र मुख्य है; इसी प्रकार मोक्ष को प्राप्त करने के लिए सर्व धर्मों में सम्यग्दर्शन ही मुख्य है ।
धर्मी जीव, चैतन्य के स्वाद के बल से रागादि समस्त परभावों को भिन्न जानता है; अनादि से राग में जो कभी नहीं आया था, ऐसा नवीन वेदन धर्मी को चैतन्यस्वाद में आता है । उसे आत्मा की अनुभूति में अतीन्द्रिय चेतनरस का जो अत्यन्त मधुर स्वाद आया, उसमें अनन्त गुण का रस समाहित हो जाता है। ऐसे वेदनपूर्वक पर्याय में जो चैतन्यधारा प्रगट होती है, उसमें रागादि अन्य भावों का अभाव है; इसीलिए राग का और ज्ञान का स्वाद अत्यन्त स्पष्ट भिन्न ज्ञात होता है । रागरहित वह चैतन्यस्वाद अत्यन्त मधुर और
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