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सम्यग्दर्शन : भाग-5]
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जीव के परिणाम, स्वरूप के चिन्तन में अधिक से अधिक मग्न होते जाते हैं। पहले आत्मा के स्वभाव से सम्बन्धित अनेक प्रकार के विचार होते हैं, उनके द्वारा स्वभाव-महिमा को पुष्ट करता जाता है परन्तु उस समय स्वभाव को पकड़ने के लिये ज्ञान का महत्त्व है; वह ज्ञान, विकल्प से हटकर स्वभाव तरफ ढलता है, तब उसे अपने सच्चे स्वरूप की महिमा समझ में आती है और स्वयं कैसा है - उसका भान होता है। वह ऐसा जानता है कि ।
मैं एक, शुद्ध, सदा अरूपी, ज्ञान-दृग हूँ यथार्थ से। कुछ अन्य वो मेरा तनिक, परमाणुमात्र नहीं अरे! शद्धात्म है मेरा नाम, मात्र जानना मेरा काम; मुक्तिपुरी है मेरा धाम, मिलता जहाँ पूर्ण विश्राम॥
मैं शुद्ध, एक हूँ; रागादि भावों से अत्यन्त भिन्न मेरी चेतना है। अग्नि का कण भले छोटा हो परन्तु वह कहीं बर्फ की जाति का तो नहीं ही कहलायेगा न? उसी प्रकार कषाय अंश भी भले शुभ हो परन्तु वह कहीं अकषाय शान्ति की जाति तो नहीं कहलायेगी न! इस प्रकार वह जीव, विकल्प और ज्ञान की जाति को अत्यन्त भिन्न समझता है। राग स्वयं दुःख है, इसीलिए उसमें एकत्वबुद्धि करना, वह दुःख का मूल है। आत्मसन्मुख होने के इच्छुक जीव उससे अलिप्त रहने का प्रयत्न करते हैं, वह विचारते हैं कि मैं कौन हूँ ? कहाँ से आया हूँ ? मेरा वास्तविक स्वरूप क्या है ? किस कारण मुझे इस संसार की पीड़ा है, मैं इसे किस प्रकार त्यागँ ? वह जानता है कि परपदार्थ के प्रति मोह के कारण ही मैं मेरे आत्मस्वरूप को भूला हूँ; इसलिए सर्व प्रथम आत्मा को पहिचानकर, मोह को छोडूं-ऐसा विचारकर, एकान्त में बैठकर, शान्तचित्त से आत्मस्वरूप
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