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[ सम्यग्दर्शन : भाग-5
आत्मसन्मुख जीव की सम्यक्त्व साधना
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जैनमार्ग को भूलकर भौतिक पदार्थों में सुख माननेवाले दुनिया के जीव, भोग-सन्मुख दौड़ रहे हैं और उनके मनमानी ज्वालायें भभक रही हैं; अब उसमें से कोई विरल जीव, जिन्हें ज्ञानी गुरुओं के प्रताप से आध्यात्मिक सुख की भावना जागृत हुई है, जिन्हें अपूर्व आत्मशान्ति का मार्ग प्राप्त करना है, आत्मा को पहिचान कर उसकी साधना करना है; इस प्रकार दुःखमय संसार से दूर होकर सम्यग्दर्शन द्वारा मुक्ति के महान सुख का मार्ग लेना है, वैसे आत्मसन्मुख जीव का वर्तन और विचारधारा अनोखी होती है।
सम्यक्त्व की तैयारीवाला वह जीव, सम्यक्त्व की पूर्व भूमिका में प्रथम तो अपने ज्ञानस्वभाव की महिमा लक्ष्य में लेता है; उसे उस स्वभावसन्मुख ढलते विचार होते हैं । कोई अमुक ही प्रकार का विचार या विकल्प हो - ऐसा नियम नहीं है परन्तु समुच्चयरूप से विकल्प का रस टूटकर चैतन्य का रस घुटे-अर्थात् उसकी परिणति, स्वभावसन्मुख उल्लसित होती जाए - ऐसे ही परिणाम होते हैं। किसी को मैं ज्ञायक हूँ - ऐसे विचार होते हैं; किसी को सिद्ध जैसा आत्मस्वरूप है - ऐसे विचार होते हैं; किसी को आत्मा की अनन्त शक्ति के विचार होते हैं - ऐसे किसी भी पहलू से जीव को अपने स्वभाव की ओर झुकने के विचार होते हैं । पश्चात् जब अन्तर की कोई अद्भुत उग्रधारा से स्वभावसन्मुख गति करता है, तब विकल्प शान्त होने लगते हैं और चैतन्यरस घुलता जाता है। उस समय विशुद्धता के अति सूक्ष्म परिणामों की धारा बहती है।
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