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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-5] [123 उनमें भी वह मध्यस्थतापूर्वक और आत्मा के लक्ष्यपूर्वक ही वर्तता है । जल-कमलवत् रहने का उसका सहज जीवन होता है और ऐसे सहज जीवन को अधिक वेग प्रदान करे, ऐसे धर्मचर्चातीर्थयात्रा-स्वाध्याय-जिनमहिमा इत्यादि प्रसंगों में उसे प्रेम होता है। उसके विचार-वाणी और वर्तन हमेशा तत्त्व से अविरुद्ध रहा करते हैं। जिनमार्ग से विपरीत किसी मार्ग को पुष्टि नहीं देता और बोलना-चलना इत्यादि प्रवृत्ति में भी उसे आत्मस्वभाव की और जैनधर्म की महिमा तैरती है। साधर्मी ज्ञानी को देखने पर उसके हृदय में आनन्द उल्लसित हो जाता है। ___ ऐसी अपूर्व सम्यक्त्वदशा के पश्चात् ही विशेष आगे बढ़ने के लिये उसका चित्त अब संयम की ओर ढलता जाता है। बाह्य सुख और सुविधायें उसे सुख के किंचित भी कारणभूत न लगने से, संयमित जीवन की भावना उसके हृदय में सदा ही वर्तती है। देहात्मबुद्धि मिट जाने से उसे बहुत आकुलता कम हुई ज्ञात होती है; इस प्रकार सम्यग्दर्शन के प्रत्यक्ष फल को वह आत्मा में निरन्तर अनुभव करता है; सम्यग्दर्शन द्वारा भव-अटवी में से बाहर निकलकर सिद्धालय में प्रस्थान करने का मङ्गल मुहूर्त करके अब वह सम्यग्दर्शन के आधार-आधार से जीवन को उज्ज्वल करते हुए मुक्तिपुरी में चला जाता है। . नोट - जिसे सम्यग्दर्शन हुआ हो, वही उसके द्वारा होनेवाले अनुभव का वर्णन यथार्थ कर सकता है। हमसे तो पढ़ा हुआ, सुना हुआ, या वैसे जीव को देखने से हुए भावों का ही वर्णन शक्य है। यह लिखते-लिखते ऐसे सम्यक्त्व सम्बन्धी भावों का जो बहुत-बहुत घोलन हुआ और उसकी गहरी महिमा जागृत हुई, वही महान लाभ है। Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007772
Book TitleSamyag Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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