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________________ www.vitragvani.com 122] [ सम्यग्दर्शन : भाग-5 होने पर हो जाता है (उपमा के लिए स्थूल दृष्टान्त है, वरना तो सम्यक्त्व के अतीन्द्रिय महा आनन्द को बाहर की कोई उपमा नहीं दी जा सकती) । एक बार ऐसे आनन्द का स्वाद चखा, फिर उसे जगत एकदम भिन्न-भिन्न लगता है । पर्वत पर बिजली गिरने से जैसे बड़ी गहरी दरार पड़ जाये; उसी प्रकार भेदज्ञानरूपी बिजली द्वारा ज्ञान और राग के बीच, स्व और पर के बीच बड़ी दरार पड़ने पर उनकी अत्यन्त भिन्नता स्पष्ट भासित होती है। अब वे कभी एकरूप भासित नहीं होते । अनादि काल के दुःख समुद्र में से बाहर निकलकर सादि -अनन्त सुख के महा समुद्र में प्रवेश हो गया, उसके परम आह्लाद की क्या बात!! उसकी अधिकता आश्चर्यकारी होती है । जगत् की समस्त प्रकार की द्विधाओं में से निकलने का मार्ग उसे हाथ आ गया है । अहा ! - मन शांत भयो, मिट सकल द्वंद; चाख्यो स्वातम - रस, दुःख निकंद । –ऐसे स्वात्मा का आनन्द रस चखा, वहाँ समस्त द्वंद-फंद इत्यादि मिट गये और परम शान्तदशा हुई । उसे अब राग और द्वेष का रस छूट गया, मध्यस्थता - वीतरागता प्रिय लगी । ' मेरे शान्तरसपूर्ण आत्मा में ही मैं हूँ, अन्यत्र कहीं मैं नहीं । ' - ऐसा हमेशा रहा करता है । लक्ष्य तो बस ! आत्मा का... आत्मा का.... और आत्मा का! बीच में चाहे जो प्रसंग आवे, चाहे जो योग बने परन्तु आत्मा के अतिरिक्त कुछ इष्ट नहीं लगता, कहीं मन नहीं रमता। व्यापारादि योग्य धन्धे, उसे स्व-पोषण के अर्थ करना पड़ें, Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007772
Book TitleSamyag Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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