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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-5] [121 और अन्तर में चैतन्य की प्रसन्नता वर्तती है।अपना पुरुषार्थ स्वसन्मुख गति कर रहा है-ऐसा उसे दिखता है। इस प्रसंग में बाहर की किसी भी अड़चन से वह जरा भी निरुत्साहित नहीं होता, उस ओर उसका लक्ष्य नहीं जाता; उसके लक्ष्य में तो चैतन्य भगवान ही घुला करता है... परिणति वेगपूर्वक स्वघर की ओर आ रही है और उपयोग की अधिक से अधिक सूक्ष्मता द्वारा समस्त सूक्ष्म विपरीतताओं को भी तोड़ता जाता है। – इस प्रकार ज्ञानस्वभाव की महिमा को घोंटते-घोंटते अन्ततः निज पुरुषार्थ की प्रचण्ड सामर्थ्य द्वारा एक क्षण में उस जिज्ञासु जीव की चेतना में स्वभावसन्मुख की कोई अपूर्व धारा उल्लसित होने से उसकी ज्ञानपरिणति अन्तर्मुख होकर, अज्ञान-अन्धकार को भेदती हुई, दर्शनमोह को तोड़ती हुई, निर्विकल्प आनन्दपूर्वक अतीन्द्रिय स्वसंवेदन द्वारा शान्ति के समुद्र अपने भगवान आत्मा को प्रत्यक्ष कर लेती है। अहा! उस अवसर को धन्य है ! तब अपूर्व सम्यग्दर्शन से उसके सर्व प्रदेश आनन्दरस में निमग्न हो जाते हैं। आत्मा में आनन्द... आनन्द की धारा बहती है और अपूर्व प्रसन्नता से उसके रोम-रोम भी पुलकित हो जाते हैं। अहा! चैतन्य के अखण्ड सुख का नमूना चखने को मिला। मुक्ति का द्वार खुल गया... उस धन्य पल की क्या बात !! महा भयंकर तूफानी सागर में, मध्य समुद्र में डूबते और मगरमच्छ से पकड़े हुए मुसाफिर को, अनायास तिरने के लिये कोई आधार प्राप्त हो जाये और महा प्रयत्न से वह किनारे आ पहुँचे, उसे जो अकथ्य आनन्द होता है, वैसा आनन्द आत्मा में सम्यक्त्व Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007772
Book TitleSamyag Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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