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[ सम्यग्दर्शन : भाग-5
सम्यक्त्व के पिपासु की एक ही धुन
सम्यक्त्व के शान्तरस का बारम्बार घोलन [१]
उसे बस एक आत्मा का रस पीने की ही धगश लगी है.... अहा! ज्ञानी जिसकी इतनी महिमा करते हैं, वह आत्मतत्त्व कैसा है ?-ऐसे बारम्बार आत्मा का मंथन करके वह गहराई में उतरता जाता है... और अन्त में कोई परमशान्ति के वेदनसहित वह अपने स्वरूप को जान लेता है-श्रद्धा कर लेता है। अहा ! आनन्दधाम मेरे इस आत्मा में कोई आकुलता नहीं। निर्विकल्प होने पर आनन्दरस का झरना बहने लगता है। अहा, धन्य वह दशा ! धन्य वह अनुभूति !
आत्मसन्मुख जीव को निर्विकल्पदशा न हुई हो, तब वह अपनी चैतन्यवस्तु के गहरे-गहरे चिन्तन द्वारा निर्विकल्पदशा प्राप्त करने का प्रयत्न करता है; एक चिदानन्द, विज्ञानघनस्वभाव का घोलन, वह उसका ध्येय रहता है ।
प्रथम, ज्ञायकस्वभाव के लक्ष्य से विचारधारा में वह जीव स्वरूप-ध्यान में स्थित रहने का उद्यमी होता है । वह नोकर्म, द्रव्यकर्म और भावकर्म से भिन्न चैतन्यस्वरूप आत्मा को लक्ष्य में लेकर स्व-पर का भेदविज्ञान करता है ।
वह अपने को विज्ञानघनस्वभावरूप लक्ष्य में लेकर, नोकर्म, अर्थात् जड़ शरीर, बाह्य के संयोग - स्त्री-पुरुष, सम्पत्ति इत्यादि -जिसे अपना मानता था, उनमें से दृष्टि उठा लेता है । उसे संयोग तुच्छ लगते हैं और ‘वह मैं नहीं' – ऐसा उसे भासित होने लगता
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