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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-5] [101 है; उनसे भिन्न मैं कोई अलग चीज़ हूँ और सच्ची शन्ति मुझमें ही है-ऐसा लगा करता है; उसे आत्मा की ही धुन लगती है। द्रव्यकर्म, जड़ हैं; उन ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय आदि आठ कर्मों को वह अपना नहीं मानता, उसका लक्ष्य वहाँ से हट जाता है और चेतनारूप आत्मा का लक्ष्य करता है। कर्म जो जड़रूप हैं, वे मेरे कैसे हो सकते हैं ? मैं तो चेतन हूँ—ऐसा वह निर्णय करता है। अन्त में भावकर्म-पुण्य-पाप आदि के भाव, जिन्हें जीव ने अज्ञान से अपना (स्वाभाविक) माना था, उन्हें भी चैतन्य से भिन्न समझता है और विकाररहित आत्मतत्त्व को पकड़ने की उसे धुन लगती है। विकल्प होने पर भी, उसका निषेध करके, ज्ञान में चैतन्यज्ञायक आत्मा को लक्ष्य में लेकर, उसके अनुभव का उद्यम करता है... मैं विज्ञानघनस्वरूप आत्मा, विकल्परहित कैसा हूँइस ओर ज्ञान को सन्मुख करने के लिये उद्यम करता है। ___ मैं तो चैतन्य-चमत्काररूप हूँ, अर्थात् स्व-पर को जाननेवाला हूँ; मैं मुझे स्वयं को जानते हुए पर को जान लूँ—ऐसा चमत्कारिक हूँ-इस प्रकार अन्दर ही अन्दर उतरता जाता है और विकल्परहित आत्मा के ही विचार में लीन रहता है। जैसे-जैसे गहरा उतरता जाता है, वैसे-वैसे चैतन्य की शान्ति का उसे ख्याल होता जाता है और विश्वास आता है कि शान्ति का कोई अगाध समुद्र मुझमें ही भरा है। पहले परवस्तु में और राग में अहंबुद्धि करता था; वह अब विचार द्वारा अपने चैतन्यपुंज में अहंबुद्धि करता है। मैं चिदानन्द हूँ, शुद्ध हूँ, बुद्ध हूँ, आनन्द की खान हूँ, चैतन्य का नूर हूँ-ऐसे Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007772
Book TitleSamyag Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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