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[सम्यग्दर्शन : भाग-5
वह धर्म का मूल पाया है; उसमें तो अपूर्व तत्त्वज्ञान है; राग और ज्ञान की भिन्नता का अनुभव है, वीतरागी आनन्द है।
२४- सर्वज्ञता कैसी है?
- अहो ! उसकी क्या बात! वह तो अतीन्द्रिय ज्ञानरूप है, महा आनन्दरूप है, राग-द्वेषरहित है, विकल्पातीत उसकी महिमा है।
२५- सत्य समझने की शुरुआत किस प्रकार करना? - वस्तु का अपना स्वरूप लक्ष्य में लेकर। २६- हिले-चले-बोले वह जीव- यह सत्य? - नहीं; जाने वह जीव; ज्ञान न हो, वह अजीव। २७- पुण्य-पाप के (शुभाशुभ) भाव कैसे हैं? - जीव को दु:ख के कारण हैं, इसलिए छोड़नेयोग्य हैं। २८- मेंढ़क-सम्यग्दृष्टि हो, उसे तत्त्वश्रद्धा होती है ? - हाँ, उसे जिनमार्गानुसार भलीभाँति तत्त्वश्रद्धा होती है। २९- तत्त्वों को जानकर क्या करना?
- हितरूप तत्त्वों को ग्रहण करना और दुःखरूप तत्त्वों को छोड़ना।
३०- परमेश्वर कैसे हैं ? - वे जगत को जाननेवाले हैं, किन्तु जगत के कर्ता नहीं। ३१- जगत के पदार्थ कैसे हैं ? - स्वयं सत् हैं। दूसरा कोई इनका कर्ता नहीं।
३२- आत्मा के अनुभव-बिना सर्वज्ञ को पहिचाना जा सकता है?
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