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सम्यग्दर्शन : भाग -4]
बाहर के दूसरे कार्यों की या इन्द्रिय सम्बन्धी उघाड़ की होंश करनेयोग्य नहीं है । जिसमें चैतन्य के उपयोग की जागृति का घात हो, वह भावमरण है। एक देह का छोड़कर दूसरे देह में जाते हुए बीच में जीव को उपयोग की जागृति नहीं रहती; इसलिए वास्तव में उसे मरण कहा है। रास्ते में जीव के उपयोग की जो संख्या गिनायी है, वह तो उस प्रकार के उघाड़ की शक्ति है, उस अपेक्षा से कहा है परन्तु वहाँ लब्धरूप उघाड़ है, उपयोगरूप नहीं । वहाँ उपयोग का अभाव हो जाता है, इसलिए मरण कहा ।
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देह की क्रिया तो जड़ है। मरने के काल में बोलना चाहे परन्तु बोल न सके- वह तो कहाँ जीव के आधीन है। तेरा उपयोग तेरे आधीन है परन्तु जड़ की - इन्द्रियों की क्रिया तेरे आधीन नहीं है।
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अरे भाई ! तू तो वीर का पुत्र ! वीरमार्ग का तू अफरगामी ! और परभाव के या इन्द्रियों के स्वामित्व में तू अटक जाये, यह कोई तुझे शोभा देता है ! अरे, यह तो नहीं शोभता और तेरे ज्ञान को तू अकेले इन्द्रियविषयों की ओर ही रोक दे - वह भी तुझे नहीं शोभता । अपने आनन्दस्वरूप आत्मा के अनुभव में ज्ञान को लगा... उसमें ही तेरी शोभा है। जिसमें ज्ञान है और जिसे जानने से सुख होता हैऐसा तो तू ही है । परचीज में - इन्द्रियों इत्यादि में ज्ञान नहीं, सुख नहीं और उन्हें जानने से तुझे भी सुख नहीं । जाननेवाले ऐसे स्वयं को जान, उसमें ही तुझे सुख है । अरे, ऐसे आत्मा को भूलकर अज्ञानी, परभाव के कर्तृत्व से दुःख में भटक रहा है।
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