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[सम्यग्दर्शन : भाग-4
तब फिर तो माता भी आनन्द से आज्ञा देती है कि बेटा ! तेरे सुख के मार्ग में मैं व्यवधान नहीं बनूँगी ! तुझे सुख उत्पन्न हो वैसा कर... कहीं भी प्रतिबद्ध को प्राप्त न हो। जो तेरा मार्ग है, उसी मार्ग में हमें आना ही है।
पश्चात् वह राजकुमार, मुनि होकर श्मशान इत्यादि में अकेला जाकर आत्मा का ध्यान करता! मरण होने पर इस शरीर को दूसरे लोग उठाकर श्मशान में ले जाते हैं, उसके बदले मैं स्वयं देह का ममत्व छोड़कर श्मशान में जीवित जाकर मेरे चैतन्य हंस का साधता हूँ। इस देह की तो आज आँख और कल राख! ऐसे बनाव नजरों से दिखते हैं । अरे, ऐसे अवसर में आत्मा को नहीं साधे तो हे जीव! कब आत्मा को साधेगा? ___यह देह तो जड़ है; तेरे अनन्त गुण तो तेरे चैतन्यधाम में भरे हैं
ज्यां चेतन त्यां अनंत गुण, केवली बोले ऐम; प्रगट अनुभव आपणो, निर्मल करो सप्रेम... रे...
चैतन्यप्रभु! प्रभुता तमारी चैतन्यधाममां.....
भगवान केवली प्रभु ने दिव्यध्वनि में ऐसा कहा कि हे जीव! तेरे चैतन्यधाम में तेरे अनन्त गुण भरे हैं; उनका निर्मल प्रेम तू प्रगट कर... तेरे परिणाम को अन्तर्मुख करके अनन्त गुण के धाम को अपने में देख। अरे! जिस चैतन्य की वार्ता सुनते हुए भी हर्ष उछले, उसके साक्षात् अनुभव के आनन्द की तो क्या बात !! __भाई! करनेयोग्य होवे तो ऐसे आत्मा के अनुभव का कार्य ही करनेयोग्य है; उसी की होंश और उत्साह करनेयोग्य है; बाकी
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