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सम्यग्दर्शन : भाग-4]
* स्वद्रव्य के रक्षक शीघ्रता से होओ। * स्वद्रव्य के व्यापक शीघ्रता से होओ। स्वद्रव्य के धारक शीघ्रता से होओ। स्वद्रव्य के रमक शीघ्रता से होओ। * स्वद्रव्य के ग्राहक शीघ्रता से होओ। * स्वद्रव्य की रक्षकता पर लक्ष्य रखो।
अर्थात् निश्चय का आश्रय करो... शीघ्रता से करो.... बाद में करूँगा-ऐसा विलम्ब मत करो, परन्तु शीघ्रता से स्वद्रव्य को पहचानकर उसका आश्रय करो, उसकी रक्षा करो और उसमें व्यापक बनो; परन्तु राग के रक्षक न बनो, राग में व्यापक न बनो। पहले कुछ दूसरा कर लें और बाद में आत्मा की पहिचान करेंगे - ऐसा कहनेवाले को आत्मा की रुचि नहीं, आत्मा की रक्षा करना उसे आता नहीं।
श्रीमद् राजचन्द्रजी छोटी उम्र में भी कितना सरस कहते हैं ! देखो तो सही ! वे कहते हैं कि हे जीवो! तुम शीघ्रता से स्वद्रव्य के रक्षक बनो... तीव्र जिज्ञासा द्वारा स्वद्रव्य को जानकर उसके रक्षक बनो। उसमें व्यापक बनो, उसके धारक बनो-ज्ञान में उसे धारण करो; उसमें रमण करनेवाले बनो, उसके ग्राहक बनो; इस प्रकार सर्व प्रकार से स्वद्रव्य पर लक्ष्य रखकर उसकी रक्षा करो। इस प्रकार निश्चय का ग्रहण करने को कहा। ___ अब दूसरे चार वाक्यों में व्यवहार का और पर का आश्रय छोड़ने को कहते हैं
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