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सम्यग्दर्शन : भाग -4]
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हे जीव ! तू स्वद्रव्य को जान..
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वीतरागी सन्त कहते हैं कि हे जीव ! यदि अपना हित चाहता हो तो स्वद्रव्य को जान ! क्योंकि तेरा हित तेरे स्वद्रव्य के आश्रय से ही है; परद्रव्य के आश्रय से तेरा हित नहीं है । इसलिए जिसे अपना हित करना हो, जिसे मोक्षमार्ग प्रगट करना हो, जिसे सुखी होना हो, वे स्वद्रव्य और परद्रव्य को भिन्न-भिन्न जानो; भिन्न जानकर परद्रव्य का आश्रय छोड़ो और स्वद्रव्य का आश्रय करो।
भगवान आत्मा, देह से भिन्न ज्ञानानन्दस्वरूप वस्तु है; वह अपने को भूलकर अपने अतिरिक्त किसी भी दूसरे पदार्थ के आश्रय से सुख होना माने तो उसमें मिथ्यात्व का सेवन होता है; इसलिए दुःख होता है। आचार्यदेव समझाते हैं कि हे भाई! तेरा स्वभाव तुझसे परिपूर्ण है, तेरे ही आश्रय से तेरी मुक्ति होती है; किसी दूसरे का आश्रय करने से तो अशुभ या शुभराग से बन्धन और दुःख ही होता है; मुक्ति का मार्ग, पर के आश्रय से नहीं; मुक्ति, स्वद्रव्य के आश्रित है।
तू जीव है ! तो तेरा जीवत्व कैसा है ? तेरा जीवन कैसा है ? उसकी बात है । तू स्वयं अतीन्द्रिय आनन्दरस का पूर है । शरीर तो जड़ है, और अन्दर के पुण्य-पाप के रागभाव भी अशुचि है, उनमें चैतन्य का आनन्द नहीं है । वे पराश्रित भाव, मुक्ति का कारण नहीं हो सकते; मुक्ति का मार्ग चैतन्यमय स्वद्रव्य के आश्रित है। शुद्ध आत्मा को जो नहीं पहचानते, उसके सन्मुख होकर सच्चे श्रद्धा
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