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[सम्यग्दर्शन : भाग-4
गुण-पर्याय को जानकर, जिसने गुण-पर्यायों को एक द्रव्य में अन्तर्गत किया, उसने पर्याय को अन्तर्मुख करके आत्मा को अपने स्वभाव में ही धार रखा, वहाँ मोह किसके आधार से रहेगा? - इसलिए निराश्रय होता हुआ मोह उसी क्षण क्षय को प्राप्त होता है। जितनी द्रव्य-गुण-पर्याय की एकता हुई, उतना धर्म है। ____ जिस क्षण अभेद चैतन्यद्रव्य की ओर ज्ञान ढला, उसी क्षण पर्यायभेद तथा गुणभेद, इन दोनों का लक्ष्य एक ही क्षण छूट गया है। अभेदस्वभाव की ओर झुके हुए ज्ञान में से भेद का विकल्प छूट गया है। निर्विकल्प होकर ऐसे अभेद चैतन्य का अनुभव करना, उसमें अपूर्व पुरुषार्थ है, आत्मा का परम आनन्द है।
Is देखो, यह ज्ञान की सामर्थ्य ! अहो! एक समय की ज्ञानपर्याय में अनन्त केवली भगवन्तों का निर्णय करने की ताकत है। जिस ज्ञान ने अरिहन्त भगवान के केवलज्ञान का निर्णय किया है, वह ज्ञान अपने स्वभाव का भी निर्णय करता है-ऐसी उसकी ताकत है।
IT वस्तु का वास्तविक स्वरूप जैसा हो, वैसा माने तो वस्तुस्वरूप और मान्यता दोनों एक होने से सम्यक् श्रद्धाज्ञान होते हैं। आत्मा का वास्तविकस्वरूप क्या है, यह जानने के लिये अरिहन्त भगवान को पहिचानने की आवश्यकता है, क्योंकि अरिहन्त भगवान, द्रव्य-गुण-पर्याय से सम्पूर्ण शुद्ध हैं। जैसे अरिहन्त भगवान हैं, वैसा जब तक यह आत्मा न हो, तब तक इसकी पर्याय में दोष है-अशुद्धता है।अरिहन्त
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