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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-4] [57 सम्पूर्ण ज्ञानरूप विकाररहित होना चाहिए-ऐसी प्रतीति होती है और उस प्रतीति के जोर से पूर्णता की ओर का पुरुषार्थ शुरु होता है। ___ 'पूर्णता के लक्ष्य से शुरुआत' अर्थात् जैसे अरिहन्त, वैसा मैं-ऐसे लक्ष्य से धर्म की शुरुआत होती है। स्वभावसामर्थ्य की पूर्णता भासित हुए बिना किसके सहारे धर्म करेगा? पामरता के सहारे धर्म की शुरुआत नहीं होती परन्तु अपनी प्रभुता को पहचानकर उसके जोर से प्रभुता का पुरुषार्थ प्रगट होता है। अपनी प्रभुता को जाने बिना धर्म का सच्चा उल्लास नहीं आता। अरिहन्त भगवान के साथ तुलना करके, जीव अपने आत्मस्वरूप को निर्णीत करता है कि जैसे अरिहन्त भगवान हैं, वैसा ही मैं हूँ। इस प्रकार अरिहन्त के स्वरूप को जानने से जीव स्वसमय को जान लेता है और स्वसमय को जानने से उसका मोह टल जाता है-यह अपूर्व धर्म की शुरुआत है। ___ अरिहन्त भगवान की पर्याय में राग का अभाव है, इसलिए राग, वह आत्मा का वास्तविक स्वरूप नहीं-इस प्रकार अरिहन्त भगवान को पहिचानने से आत्मा और राग का भेदज्ञान होता है। IS ज्ञानपर्याय एक समयमात्र की ही होने पर भी, उसमें त्रिकाली द्रव्य का निर्णय करने की सामर्थ्य है। सर्वज्ञ भगवान के परिपूर्ण द्रव्य-गुण-पर्याय को तथा वैसे अपने आत्मा को निर्णय में ले ले, ऐसी सामर्थ्य ज्ञान की ही है; राग में ऐसी सामर्थ्य नहीं है। अन्तर्मुख होकर त्रिकाली स्वभाव के साथ तन्मय हो जाये-ऐसी Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007771
Book TitleSamyag Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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