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सम्यग्दर्शन : भाग-4]
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IT आत्मा को पहचानकर, उसका सम्यग्दर्शन करना, वह इस मनुष्य जीवन की सफलता है। आत्मा की पहचान के संस्कारसहित जहाँ जायेगा, वहाँ आत्मा की साधना चालू रखकर अल्प काल में मुक्ति प्राप्त करेगा। परन्तु यदि जीवन में आत्मा की पहिचान के संस्कार नहीं डाले तो डोरेरहित सुई की तरह आत्मा भवभ्रमण में कहीं खो जायेगा। जैसे डोरा पिरोयी हुई सुई खोती नहीं, वैसे यदि आत्मा में सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानरूपी डोरा पिरो ले तो आत्मा चौरासी के अवतार में भटकेगा नहीं।
। यह सम्यग्दर्शन के लिये अपूर्व बात है। जैसे व्यापार -धन्धे में या रसोई इत्यादि में ध्यान रखते हैं, वैसे यहाँ आत्मा की रुचि करके बराबर ध्यान रखना चाहिए।अन्तर में मिलान करके समझना चाहिए।माङ्गलिकरूप से यह अपूर्व बात है। 'यह कोई अपूर्व है, समझने जैसा है'-ऐसा उत्साह लाकर साठ मिनिट बराबर ध्यान रखकर सुने तो भी दूसरों से अलग प्रकार का पुण्य हो जाता है और आत्मा के लक्ष्य से अन्तर में समझकर इस भावरूप से परिणम जाये, उसे तो अनन्त काल में अप्राप्त ऐसे सम्यग्दर्शन का अपूर्व लाभ होता है। यह बात सुनना भी कठिन है और समझना, वह तो अभूतपूर्व है।
II सम्यग्दर्शन की अन्तर क्रिया ही धर्म की पहली क्रिया है। सम्यग्दर्शन स्वयं श्रद्धागुण की पवित्र क्रिया है और उसमें मिथ्यात्वादि अधर्म की क्रिया का अभाव है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान -चारित्र के निर्मलभावरूप जो पर्याय परिणमति है, वही धर्मक्रिया है; वह क्रिया, रागरहित है। राग हो, वह धर्म की क्रिया नहीं है। धर्मी जानता है कि मेरे स्वभाव के अनुभव में ज्ञान, दर्शन, आनन्द
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