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[सम्यग्दर्शन : भाग-4
टल ही गयी। सच्चा समझे, उसे विपरीत मान्यता भी रहेऐसा नहीं होता। ___ हे जीव! अरिहन्त भगवान जैसे तेरे आत्मा को तू जानऐसा कहा, उसमें इतना तो आ गया कि पात्र जीव को अरिहन्तदेव के अतिरिक्त सर्व कुदेवादि की मान्यता तो छूट ही गयी है।
- अरिहन्त भगवान के द्रव्य-गुण-पर्याय को जानकर वहीं अटकता नहीं परन्तु अपने आत्मा की ओर ढलता है। ___ - द्रव्य-गुण और पर्याय से परिपूर्ण मेरा स्वरूप है; राग-द्वेष मेरा स्वरूप नहीं-ऐसा निर्णय करके, फिर पर्याय का लक्ष्य छोड़कर
और गुणभेद का भी लक्ष्य छोड़कर, चिन्मात्र आत्मा को लक्ष्य में लेता है। इस प्रकार अकेले चिन्मात्र आत्मा का अनुभव करते ही सम्यग्दर्शन होता है और मोह टल जाता है। ____ भगवान के दर्शन और भगवान का साक्षात्कार कैसे हो?-उसकी यह बात है। भगवान कैसे हैं, वह पहचाने
और मैं भी ऐसा ही भगवान हूँ-'जिन सो ही है आत्मा'ऐसा पहचानकर उसी में लक्ष्य को एकाग्र करने से निर्विकल्प आनन्द का अनुभव होता है, वही भगवान का दर्शन है, वही आत्मसाक्षात्कार अथवा परमात्मा का साक्षात्कार है। आत्मा सो परमात्मा' इसलिए आत्मा का दर्शन ही परमात्मा का दर्शन है, वही स्वानुभव है, वही बोधिसमाधि है, वही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है। इसके अतिरिक्त भगवान में
और अपने आत्मा में जो किञ्चित् भी अन्तर परमार्थ से मानता है, उसे भगवान का साक्षात्कार, भगवान से भेंट या भगवान के दर्शन नहीं होते।
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