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सम्यग्दर्शन : भाग-4]
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उपेक्षा करके अन्तर में चैतन्यभगवान कैसा है, उसे देखने का एक ही लक्ष्य रखना। यदि दुनिया की अनुकूलता-प्रतिकूलता में रुकेगा तो चैतन्य भगवान को तू देख नहीं सकेगा। इसलिए दुनिया की दरकार छोड़कर.... अकेला पड़कर... अन्तर में अपने चैतन्य भगवान को देखने का तू उद्यम कर।
(5)
आचार्यदेव अत्यन्त कोमलता से प्रेरणा प्रदान करते हैं कि हे बन्धु! अनादि काल से तू इस चौरासी के कुएँ में पड़ा है, उसमें से शीघ्र बाहर निकलने के लिये मरकर भी तू तत्त्व का कौतूहली हो। यहाँ मरकर भी' तत्त्व का कौतूहली होने का कहा, उसमें पराकाष्ठा की बात की है । मृत्यु तक के उत्कृष्ट प्रसङ्ग को लक्ष्य में लेकर तू आत्मा को देखने का कौतूहली हो। मरण प्रसङ्ग भले आवे नहीं परन्तु तू इतनी उत्कृष्ट हद को लक्ष्य में लेकर चैतन्य को देखने का उद्यम कर । मरकर भी अर्थात् देह जाती हो तो भले जाये परन्तु मुझे तो आत्मा का अनुभव करना है - ऐसे भाव से उद्यम कर। 'मरकर' ऐसा कहा उसमें वास्तव में तो देहदृष्टि छोड़ने को कहा है; मरने पर तो देह छूटती है परन्तु हे भाई! तू आत्मा को देखने के लिये जीते जी देह की दृष्टि छोड़ दे... देह वह मैं'-ऐसी मान्यता छोड़ दे।
(6) चैतन्यतत्त्व को देखने के लिये कौतूहल करने को कहा, वह शिष्य की चैतन्य को देखने के लिये छटपटाहट और उग्रता बतलाता है। हे भाई! तू प्रमाद छोड़कर उग्र प्रयत्न द्वारा चैतन्यतत्त्व को देख। जैसे सर्कस इत्यादि के नये-नये प्रसङ्ग देखने में कौतूहल है,
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