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[सम्यग्दर्शन : भाग-4
७. वात्सल्य- अङ्ग में प्रसिद्ध विष्णकुमार मुनि की कथा
लाखों वर्ष पुरानी मुनिसुव्रत तीर्थङ्कर के समय की यह बात है। उज्जैन नगरी में तब श्रीवर्मा नाम के राजा राज्य करते थे। उनके बलि आदि चार मन्त्री थे; जो धर्म की श्रद्धा से रहित-नास्तिक थे।
एकबार उज्जैन नगरी में सात सौ मुनियों के संघसहित अकम्पनाचार्य पधारे। लाखों नगरजन मुनियों के दर्शनार्थ गए; राजा को भी उनके दर्शनों की अभिलाषा हुई और मन्त्रियों को भी साथ चलने का कहा। यद्यपि बलि आदि मिथ्यादृष्टि मन्त्रियों को जैन मुनियों के प्रति श्रद्धा नहीं थी, परन्तु राजा की आज्ञा होने से उन्हें भी साथ जाना पड़ा।
राजा ने मुनियों को वन्दन किया परन्तु ज्ञान-ध्यान में लीन मुनिराज तो मौन थे। मुनियों की ऐसी शान्ति और निस्पृहता देखकर राजा तो प्रभावित हुआ परन्तु मन्त्रियों को अच्छा नहीं लगा; वे दुष्टभाव से कहने लगे कि-महाराज! इन जैन मुनियों को कुछ भी ज्ञान नहीं है, इसलिए ये मौन रहने का ढोंग करते हैं। इस प्रकार निन्दा करते हुए चले जा रहे थे कि रास्ते में श्रुतसागर नाम के मुनि मिले, उनसे मुनिसंघ की निन्दा सहन नहीं हुयी, इसलिए मन्त्रियों के साथ वाद-विवाद किया। रत्नत्रयधारक मुनिराज ने अनेकान्तसिद्धान्त के न्यायों द्वारा मन्त्रियों की कुयुक्तियों का खण्डन करके उन्हें मौन कर दिया। राजा की उपस्थिति में हार जाने से मन्त्रियों को अपमान लगा।
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