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सम्यग्दर्शन : भाग -4]
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अहा ! इन्द्र ने तो स्तुति द्वारा भगवान के वैराग्य की स्तुति की लेकिन जिसका चित्त अभी वैराग्य में नहीं लगा था, उस पुष्पडाल को तो वह श्लोक सुनकर ऐसा लगा कि अरे ! मेरी स्त्री भी इस पृथ्वी की भाँति 12 वर्ष से मेरे बिना दुःखी होती होगी। मैंने बारह वर्ष से उसका मुँह भी नहीं देखा, मुझे भी उसके बिना चैन नहीं पड़ता; इसलिए चलकर उसकी खबर ले आऊँ । कुछ समय और उसके साथ रहकर फिर दीक्षा ग्रहण कर लूँगा।
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- ऐसा विचारकर पुष्पडाल तो किसी से पूछे - ताछे बिना घर की घर चल दिया। वारिषेण मुनि उसकी गतिविधि को समझ गये; हृदय में मित्र के प्रति धर्मवात्सल्य की भावना जागृत हुयी कि किसी प्रकार मित्र को धर्म में स्थिर करना चाहिए । – ऐसा विचार कर वह भी उसके साथ चल दिए, और उसे साथ लेकर अपने राजमहल में आये।
मित्रसहित अपने पुत्र को महल में आया देखकर चेलना रानी को आश्चर्य हुआ कि क्या वारिषेण, मुनिदशा का पालन न कर सकने से वापिस आया है। ऐसा उन्हें सन्देह हुआ । उसकी परीक्षा के लिए एक सोने का आसन और एक लकड़ी का आसन रखा, लेकिन वैरागी वारिषेणमुनि तो वैराग्यपूर्वक लकड़ी के आसन पर बैठ गये। इससे विचक्षण चेलनादेवी समझ गयी कि पुत्र का मन तो वैराग्य में दृढ़ है, उसके आगमन का अन्य कोई प्रयोजन होगा।
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वारिषेणमुनि के आगमन से गृहस्थाश्रम में रही हुईं 32 रानियाँ उनके दर्शन करने को आयीं। राजमहल का अद्भुत वैभव और ऐसी सुन्दर 32 रानियों को देखकर पुष्पडाल तो आश्चर्य में पड़
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