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________________ www.vitragvani.com 1761 [सम्यग्दर्शन : भाग-4 जाऊँ मैं अकेला और तुझे छोड दूँ? चल न तू भी मेरे साथ ही मोक्ष में। अहा, मानों अपने पीछे-पीछे चलनेवाले को मोक्ष में ले जा रहे हों – इस प्रकार परम निस्पृहता से मुनि तो आगे ही आगे चले जा रहे हैं। पुष्पडाल भी सङ्कोचवश उनके पीछे-पीछे चला जा रहा है। चलते-चलते वे आचार्य महाराज के पास पहुँचे और वारिषेणमुनि ने कहा – प्रभो! यह मेरा बचपन का मित्र है, और संसार से विरक्त होकर आपके पास दीक्षा लेने आया है। आचार्य महाराज ने उसे निकट भव्य जानकर दीक्षा दे दी। अहा, सच्चा मित्र तो वही है जो जीव को भव-समुद्र से पार करे। मित्र के आग्रहवश पुष्पडाल यद्यपि मुनि हो गया और बाह्य में मुनि के योग्य क्रियायें भी करने लगा, परन्तु उसका चित्त अभी भी संसार से छूटा न था। भावमुनिपना अभी उसे नहीं हुआ था; प्रत्येक क्रिया करते समय उसे अपने घर की याद आती थी। सामायिक करते समय भी बार-बार उसे अपनी पत्नी का स्मरण होता था। वारिषेणमुनि उसके मन को स्थिर करने के लिए उसके साथ ही रहकर उसे निरन्तर उत्तम ज्ञान-वैराग्य का उपदेश देते थे, परन्तु पुष्पडाल का मन अभी धर्म में स्थिर नहीं हुआ था। ___ ऐसा करते-करते 12 वर्ष बीत गए। एकबार वे दोनों मुनिवर महावीर भगवान के समवसरण में बैठे थे, उस समय इन्द्रों ने भगवान की स्तुति करते हुए कहा कि – हे नाथ! इस राज-पृथ्वी को छोड़कर आप मुनि हुए, जिससे पृथ्वी अनाथ होकर आपके विरह में झूरती है और उसके आँसू इस नदी के रूप में बह रहे हैं। Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007771
Book TitleSamyag Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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