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सम्यग्दर्शन : भाग-4]
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एक त्यागी श्रावक का वेष धारण करके सेठ के गाँव में पहुंचा। अपने वाक्-चातुर्य से, व्रत-उपवास आदि के दिखावे से, वह लोगों में प्रसिद्ध होने लगा और उसे धर्मात्मा समझकर जिनभक्त सेठ ने अपने चैत्यालय की देखभाल का काम उसको सौंपा। फिर क्या था; त्यागीजी नीलमणि को देखते ही आनन्द-विभोर हो गए और विचार करने लगे कि कब मौका मिले और मैं इसे लेकर भाग जाऊँ।
इतने में सेठ को दूसरे गाँव जाने का मौका आया और वे उस बनावटी श्रावक को चैत्यालय की देखरेख की सूचनाएँ देकर चले गए । गाँव से कुछ दूर चलकर उन्होंने पड़ाव डाला। __रात हुई, सूर्यचोर उठा, उसने नीलमणि रत्न अपने जेब में रखा और भागा, लेकिन नीलमणि का प्रकाश छिपा न रहा; वह तो अन्धकार में भी जगमगा रहा था। इससे चौकीदारों को सन्देह हुआ
और उसे पकड़ने के लिए उसके पीछे दौड़े। अरे! मन्दिर के नीलमणि की चोरी करके चोर भाग रहा है, पकड़ो, पकड़ो-ऐसा चारों ओर कोलाहल मच गया। ___जब सूर्यचोर को बचने का कोई उपाय नहीं रहा, तब वह जहाँ जिनभक्त सेठ का पड़ाव था, उसी में घुस गया। चौकीदार उसे पकड़ने को पीछे आये। सेठ सब बात समझ गए, कि यह भाई साहब चोर हैं, लेकिन त्यागी के रूप में प्रसिद्ध यह आदमी चोर है-ऐसा लोगों को पता लगेगा तो धर्म की निन्दा होगी-ऐसा विचारकर बुद्धिमान सेठ ने चौकीदारों को डाँटते हुए कहा – अरे! तुम लोग क्या कर रहे हो? यह कोई चोर नहीं, यह तो 'सज्जन-धर्मात्मा' हैं। मैंने ही इन्हें नीलमणि लाने के लिए कहा था, तुम लोगों ने इन्हें चोर समझकर व्यर्थ हैरान किया।
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