SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ www.vitragvani.com 156] [ सम्यग्दर्शन : भाग-4 क्या पता कि इस युवा स्त्री ने तो अपना जीवन ही धर्मार्थ अर्पण कर दिया है और संसार के विषय - भोगों की इसे अणुमात्र भी आकांक्षा नहीं है। संसार के भोगों के प्रति इसका चित्त एकदम निष्कांक्ष है। शील की रक्षा करते हुए चाहे जितना दुःख आ पड़े किन्तु इसे उसका भय नहीं है । अहा! जिसका चित्त निष्कांक्ष है, वह भय से भी संसार के सुखों की इच्छा कैसे करे ? जिसने अपने आत्मा में ही परम सुख का निधान देखा है, वह धर्मात्मा, धर्म के फल में संसार के देवादिक वैभव के सुख स्वप्न में भी नहीं चाहता - ऐसी निष्कांक्षित हुई अनन्तमती की यह दशा ऐसा सूचित करती है कि उसके परिणामों का प्रवाह अब स्वभाव सुख की ओर झुक रहा है। ऐसे धर्मसन्मुख जीव, संसार के दुःख से कभी नहीं डरते और अपना धर्म कभी नहीं छोड़ते। संसार के सुख का वाँछक जीव अपने धर्म में अडिग नहीं रह सकता। दुःख से डरकर वह धर्म को भी छोड़ देता है । जब कामसेना ने जाना कि अनन्तमती किसी भी प्रकार से वश में नहीं आयेगी, तो उसने बहुत सा धन लेकर उसे सिंहराज नामक राजा को सौंप दिया। बेचारी अनन्तमती ! - मानों सिंह के जबड़े में जा पड़ी। उसके ऊपर पुनः एक नयी मुसीबत आयी और दुष्ट सिंहराज भी उस पर मोहित हो गया, परन्तु अनन्तमती ने उसका तिरस्कार किया । विषयान्ध हुआ वह पापी अभिमानपूर्वक सती पर बलात्कार करने को तैयार हो गया, किन्तु क्षण में उसका अभिमान चूर हो गया। सती के पुण्य प्रताप से (नहीं, – शीलप्रताप से) वनदेवी Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007771
Book TitleSamyag Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy