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सम्यग्दर्शन : भाग-4]
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फिर यह क्या हुआ? वह समझाने लगी कि हे सेठ! आप तो मेरे पिता-तुल्य हो। दुष्ट भील के चंगुल से छूटकर यहाँ आने के बाद तो मैंने समझा था कि मेरे पिता मिल गये और आप मुझे मेरे घर पहुँचा दोगे। अरे! आप भले आदमी होकर ऐसी नीच बात क्यों करते हैं? यह आपको शोभा नहीं देता; अत: ऐसी पापबुद्धि छोड़ो।
बहुत समझाने पर भी दुष्ट सेठ नहीं समझा, तब अनन्तमती ने विचार किया कि इस दुष्ट का हृदय विनय-प्रार्थना से नहीं पिघलेगा, इसलिए क्रोध-दृष्टिपूर्वक उस सती ने कहा कि अरे दुष्ट! कामान्ध! तू दूर जा, मैं तेरा मुख भी नहीं देखना चाहती।
अनन्तमती का क्रोध देखकर सेठ भी भयभीत हो गया और उसकी अक्ल ठिकाने आ गयी। क्रोधपूर्वक उसने अनन्तमती को कामसेना नाम की एक वैश्या को सौंप दिया। ____ अरे! कहाँ उत्तम संस्कारवाले माता-पिता का घर! और कहाँ वह वैश्या का घर! अनन्तमती को अन्तर-वेदना का पान नहीं था, परन्तु अपने शीलव्रत में वह अडिग थी। संसार का वैभव देखकर उसका मन तनिक भी ललचाया नहीं था।
ऐसी सुन्दरी को प्राप्त करके कामसेना वैश्या अत्यन्त प्रसन्न हुयी और इससे मुझे बहुत आमदनी होगी' - ऐसा समझकर वह अनन्तमती को भ्रष्ट करने का प्रयत्न करने लगी। उससे अनेक प्रकार के कामोत्तेजक वार्तालाप किये, बहुत लालच दिये, बहुत डर भी दिखाया, परन्तु फिर भी अनन्तमती अपने शीलव्रत से रञ्चमात्र भी नहीं डिगी। कामसेना को तो ऐसी आशा थी कि इस युवा स्त्री का व्यापार करके मैं विपुल धन कमाऊँगी, परन्तु उसकी आशा पर पानी फिर गया। उस बेचारी विषय-लोलुप वैश्या को
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