________________
www.vitragvani.com
सम्यग्दर्शन : भाग-4]
[149
की तरह अडिग ही रहा; अपने आत्मा की शान्ति से वह किञ्चित् मात्र विचलित नहीं हुआ। अनेक प्रकार के भोग-विलास बताये किन्तु उनमें भी वह नहीं लुभाया। एक जैन श्रावक में भी ऐसी अद्भुत दृढ़ता देखकर वह देव अत्यन्त प्रसन्न हुआ; पश्चात् सेठ ने उसे जैनधर्म की महिमा समझायी कि देह से भिन्न आत्मा है, उसके अवलम्बन से जीव अपूर्व शान्ति का अनुभव करता है और उसके ही अवलम्बन से मुक्ति प्राप्त करता है। इससे उस देव को भी जैनधर्म की श्रद्धा हुई और सेठ का उपकार मानकर उसे आकाशगामिनी विद्या दी।
उस आकाशगामिनी विद्या से सेठ जिनदत्त प्रतिदिन मेरु तीर्थ पर जाते, और वहाँ अद्भुत रत्नमय जिनबिम्ब तथा चारणऋद्धिधारी मुनिवरों के दर्शन करते, इससे उन्हें बहुत आनन्द प्राप्त होता था। एकबार सोमदत्त नामक माली के पूछने पर सेठ ने उसे आकाशगामिनी विद्या की सारी बात बतायी और रत्नमय जिनबिम्ब का बहुत बखान किया। यह सुनकर माली को भी उनके दर्शन करने की भावना जागृत हुयी और आकाशगामिनी विद्या सीखने के लिए सेठ से निवेदन किया। सेठ ने उसे विद्या साधना सिखा दिया, तद्नुसार अन्धेरी चतुर्दशी की रात में श्मशान में जाकर उसने वृक्ष पर छींका लटकाया और नीचे जमीन पर तीक्ष्ण नोंकदार भाला गाड़ दिया। अब आकाशगामिनी विद्या को साधने के लिए छींके में बैठकर, पञ्च नमस्कार मन्त्र आदि मन्त्र बोलकर उस छींके की डोरी काटनेवाला था, परन्तु नीचे भाला देखकर उसे भय लगने लगता था और मन्त्र में शङ्का होने लगती थी कि यदि कहीं मन्त्र सच्चा न पड़ा और मैं नीचे गिर गया तो मेरे शरीर में भाला घुस जाएगा। इस प्रकार सशङ्क होकर वह नीचे उतर जाता और फिर
Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.