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________________ www.vitragvani.com 130] [सम्यग्दर्शन : भाग-4 PHOTO || ३. सम्यग्दृष्टि का निर्विचिकित्सा अङ्ग । सब वस्तुधर्मविर्षे जुगुप्साभाव जो नहिं धारता। चिन्मूर्ति निर्विचिकित्स वो, सद्वृष्टि निश्चय जानना॥२३१॥ ___ मैं एक वीतरागी ज्ञानस्वभाव हूँ-ऐसा जहाँ अन्तर्वेदन हुआ, वहाँ धर्मी को जगत के किसी पदार्थ के स्वरूप के प्रति ग्लानि नहीं होती; पदार्थों का ऐसा ही स्वभाव है-ऐसा जानकर उनके प्रति धर्मी को दुर्गच्छा (ग्लानि) नहीं होती। मैं तो शान्त ज्ञानस्वरूप ही हूँ - ऐसा ज्ञानवेदन में रहता हुआ, ग्लानि का अभाव होने से, धर्मी को निर्जरा ही होती है, बन्धन नहीं होता। किन्हीं रत्नत्रय धारक मुनिराज का शरीर मलिन-काला कुबड़ा हो तो वहाँ धर्मी को जुगुप्सा नहीं होती। वह जानता है कि अहो! आत्मा का स्वभाव तो रत्नत्रयमय पवित्र है और यह मलिनता तो शरीर का स्वभाव है, शरीर ऐसे स्वभाववाला है-इस प्रकार वस्तुस्वभाव को चिन्तवन करते हुए धर्मात्मा को जुगुप्सा-ग्लानि नहीं होती; इसलिए उसे ग्लानिकृत बन्धन नहीं होता। मैं तो ज्ञान हूँ, मेरे ज्ञान में मलिनता नहीं है तथा मलिन वस्तु को जानने से ज्ञान कहीं मलिन नहीं हो जाता; मलिनता को जानते हुए धर्मात्मा को ऐसी शङ्का नहीं होती कि मेरा ज्ञान ही मलिन हो गया है; वह तो ज्ञान को पवित्ररूप ही अनुभव करता है, इसलिए उसे वास्तव में जुगुप्सा-ग्लानि नहीं होती। शरीर में क्षुधा-तृषा हो, रोग हो, छेदन-भेदन और खून का प्रवाह चले, वहाँ धर्मी उसे जड़ की अवस्था जानता है। अरे! मैं तो Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007771
Book TitleSamyag Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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