SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग -4] [ 129 जिसके पास इन्द्र का वैभव तो क्या ! परन्तु तीन लोक की विभूति, वह भी वास्तव में 'भूतिसमान' / राख समान है, ऐसे चैतन्य की अचिन्त्य विभूति जिसने अपने अन्तर में देखी, वह जीव बाहर की विभूति की वाञ्छा कैसे करेगा ? चैतन्य की रिद्धि के समक्ष धर्मी को जगत की किसी रिद्धि की कांक्षा नहीं है । जहाँ जीवस्वभाव प्रतीति में आया, वहाँ कनक या पाषाण इत्यादि सर्व को अजीव का धर्म जानकर, धर्मी को उसकी कांक्षा नहीं होती। जगत में प्रशंसा हो या निन्दा हो, परन्तु उससे स्वयं का हित-अहित धर्मी नहीं मानता; इसलिए उसे उस सम्बन्धी कांक्षा नहीं है । ज्ञायकस्वभाव की भावना में दूसरे परभावरूप अन्य धर्मों की आकांक्षा ज्ञानी को नहीं होती। इस प्रकार समकिती जीव, जगत में सर्वत्र निःकांक्ष है; इसलिए उसे पर की कांक्षाकृत बन्धन नहीं होता, परन्तु नि:कांक्षा के कारण निर्जरा ही होती है । अरे जीव!‘क्या इच्छत, खोवत सवै, है इच्छा दुःख मूल' सुख तो तेरे चैतन्यस्वभाव में है, उस सुख को चूककर बाहर के पदार्थों में से सुख लेने की वाञ्छा तू क्यों करता है ? अपने ज्ञानानन्दस्वभाव की भावना छोड़कर पर की इच्छा, वह दुःख का मूल है। धर्मी को ज्ञानानन्दस्वभाव के अतिरिक्त दूसरे किसी की भावना नहीं है। धर्मी को अस्थिरताजन्य इच्छा होती है, उस इच्छा की उसे भावना नहीं है; उस इच्छा को अपने ज्ञायकस्वभाव से भिन्न जानता है, इसलिए ज्ञायकस्वभाव की दृष्टि में परमार्थ से उसे इच्छा का अभाव ही है । इस प्रकार इच्छा के अभाव के कारण उसे सर्वत्र नि:कांक्षितपना ही है और उसे निर्जरा ही होती है - ऐसा सम्यग्दृष्टि का नि:कांक्ष अङ्ग जानना । • Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007771
Book TitleSamyag Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy