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[ सम्यग्दर्शन : भाग-4
ऐसे प्रसङ्ग को याद करके गुरुदेव बहुत वैराग्य से एक कड़ी बोले थे जिसमें लगभग ऐसे भाव थे कि
'माँ यदि तू आज्ञा दे... तो संयम के मार्ग में संचरूँ वीतराग होकर निजहित साधू.... केवलज्ञान को प्रगट करूँ'
तू शूरवीर होकर मोक्षपंथ में आ ! ( प्रभु का मार्ग है शूरों का )
श्रीगुरु शिक्षा देते हैं कि हे भव्य ! आत्मा के अनुभव के लिये सावधान होना... शूरवीर होना... जगत की प्रतिकूलता देखकर कायर नहीं होना... प्रतिकूलता के सामने मत देखना, शुद्ध आत्मा के आनन्द के समक्ष देखना । शूरवीर होकर उद्यमी होकर आनन्द का अनुभव करना। ‘हरि का मारग है शूरों का ... ' वे प्रतिकूलता में या पुण्य की मिठास में कहीं नहीं अटकते; उन्हें एक अपने आत्मार्थ का ही काम है । वे भेदज्ञान द्वारा आत्मा को बन्धन से सर्वथा प्रकार से भिन्न अनुभव करते हैं । ऐसा अनुभव करने का यह अवसर है - भाई ! उसमें शान्ति से तेरी चेतना को अन्तर में एकाग्र करके त्रिकाली चैतन्य प्रवाहरूप आत्मा में मग्न कर... और रागादि समस्त बन्धभावों को चेतन से भिन्न अज्ञानरूप जान। इस प्रकार सर्व प्रकार से भेदज्ञान करके तेरे एकरूप शुद्ध आत्मा को शोध । मोक्ष को साधने का यह अवसर है ।
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अहो ! वीतराग का मार्ग... जगत् से अलग है । जगत् का भाग्य है कि सन्तों ने ऐसा मार्ग प्रसिद्ध किया है। ऐसा मार्ग प्राप्त करके, हे जीव ! भेदज्ञान द्वारा शुद्ध आत्मा को अनुभव में लेकर तू मोक्षपंथ में आ।
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