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सम्यग्दर्शन : भाग -4]
तीन लोक के विभावों से मुक्त है । राग अंश, राग में है; चेतन अंश, चेतन में है; दोनों अत्यन्त भिन्न अपने-अपने स्वरूप में वर्तते हैं I चेतन में राग का अभाव ही है ।
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ज्ञानचेतना वाणी को या राग को नहीं प्रकाशती; ज्ञानचेतना तो शुद्ध चैतन्य को प्रकाशती है। ऐसी ज्ञानचेतना ही शुद्धता का कारण होती है; राग अंश शुद्धता का कारण नहीं होता, वह तो स्वयं अशुद्ध है। अशुद्ध कारण द्वारा शुद्ध कार्य कैसे होगा ? होगा ही नहीं; कारण हमेशा कार्य की जाति का होता है, विरुद्ध नहीं होता । स्वरूप को चेतनेवाली चेतना को ही वास्तव में जीव कहा है। उस चेतना में जीव अपने वास्तविक स्वरूप से प्रकाशित होता है; राग में शुद्ध जीव प्रकाशित नहीं होता । शुद्ध चेतना में अपार ताकत है, उसमें अकेली वीतरागता भरी है, उसमें आनन्द भरा है; आनन्द को अनुभव करती हुई मोक्ष की ओर दौड़ती है।
ज्ञानचेतना द्वारा जीव क्या करता है ? आनन्द का वेदन। अज्ञानचेतना द्वारा क्या करता है ? - राग-द्वेष दुःख का वेदन । परभाव के एक अंश को भी ज्ञान चेतना वेदती नहीं है।
अहा! ज्ञानचेतना की महिमा की जगत को खबर नहीं है । जिसे ज्ञानचेतना हुई, वह आत्मा सर्व परभावों से भिन्न पड़ गया, वह निजानन्द के समुद्र के अनुभव में लीन हुआ । विकल्प से पार ज्ञानचेतना अन्दर स्वभाव में घुस गयी है; रागादि परभाव तो अनुभव से बाहर रह गये हैं । जिसे ऐसी अनुभव दशा प्रगट हुई, उसे भगवती ज्ञानचेतना वर्तती है ।
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जयवन्त वर्तो ज्ञान चेतनावन्त ज्ञानी भगवन्त....
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