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सम्यग्दर्शन : भाग-4]
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लक्ष्य में तो ले । मुश्किल से ऐसा अवसर मिला है... उसमें करना तो एक यही है। अन्दर में जरा धीर होकर, बाहर के कार्यों का रस छोड़कर विचार कर तो तुझे ज्ञात होगा कि आत्मा का स्वभाव और राग, दोनों एक होकर रहनेयोग्य नहीं परन्तु भिन्न पड़ने योग्य है। दोनों का स्वभाव भिन्न है; इसलिए भिन्न पड़ जाते हैं। भाई! समयसमय करते हुए काल तो चला ही जा रहा है; उसमें यदि तू तेरे स्वभाव सन्मुख न हुआ तो तूने क्या किया? जो करनेयोग्य कार्य है, वह तो यह ही है। चाहे जितने प्रयत्न द्वारा भी विकार से भिन्न चेतना का अनुभव करना, वही करना है।
तेरी चेतना, राग को चेतने में (अनुभवने में) रुकती है, उसके बदले चेतना अन्तर में ढलकर शुद्ध आत्मा को चेते-अनुभव करे कि तुरन्त ही आत्मा और बन्ध की भिन्नता का अनुभव होता हैएक समय में ही ऐसा उपयोग पलटा खा जाता है।
दुनिया के जीव, दुनिया के बाह्य कार्यों में अपनी-अपनी चतुराई और प्रवीणता दिखाते हैं... तो हे भाई! तू तेरे आत्मा के अनुभव में प्रवीण हो... उसमें उद्यमी हो, तेरी चेतना को राग से भिन्न करके शुद्धस्वरूप में प्रविष्ट कर... उस क्षण 'ही' तुझे परम आनन्द होगा, भेदज्ञान में निपुण जीव आनन्दसहित अपने शुद्ध आत्मा को अनुभवते हैं- ऐसा अनुभव, वह मोक्षमार्ग है, वह करने जैसा कार्य है। ___ अहा! सावधान होकर आत्मा के विचार का उद्यम करे, उसमें तो नींद उड़ जाये वैसा है। जिसे सम्यग्दर्शन प्रगट करना है, वह तो आत्मा और बन्ध की भिन्नता के विचार में जागृत है, उत्साही है,
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