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[सम्यग्दर्शन : भाग-4
___'यह मैं ज्ञानस्वभाव आत्मा हूँ'-ऐसा ज्ञान, इन्द्रिय या मन की
ओर की बुद्धि द्वारा नहीं होता, इन्द्रिय या मन की ओर की बुद्धि द्वारा तो पर का ज्ञान होता है। समस्त विकल्पों से पार होकर आत्मस्वभाव की ओर ज्ञान का झुकाव (आत्मसन्मुखता), वही सम्यक्रूप से आत्मा को देखने की ओर अनुभव करने की विधि है। उसमें स्वसंवेदन प्रत्यक्षरूप से आत्मा का श्रद्धा-ज्ञान होता है।
सम्यग्दर्शन होने पर आत्मा समस्त विश्व पर तैरता है; - तैरता है अर्थात् क्या?
तैरता है, अर्थात् भिन्न रहता है; जैसे पानी में तैरता हुआ मनुष्य, पानी में डूबता नहीं परन्तु ऊपर रहता है; उसी प्रकार ज्ञानस्वभावरूप से स्वयं को अनुभव करता हुआ आत्मा, विकल्पों में डूबता नहीं, विकल्पों में एकाकार नहीं होता परन्तु उसके ऊपर तैरता है, अर्थात् उनसे भिन्नरूप ही स्वयं को अनुभव करता है। उसमें आत्मा की कोई अचिन्त्य परम गम्भीरता अनुभव में आती है।
सम्यक्त्व के प्रयत्न से शुरुआत किस प्रकार है ?
अपूर्व है-पूर्णता के लक्ष्य से वह शुरुआत है। 'ज्ञानस्वभावी आत्मा का निर्णय' अर्थात् पूर्णता का लक्ष्य; इस पूर्णता के लक्ष्य से शुरुआत ही वास्तविक शुरुआत है। स्वभाव के निर्णय के काल में 'ज्ञान का' अवलम्बन है, विकल्प होने पर भी उनका अवलम्बन नहीं। विकल्प द्वारा सच्चा निर्णय नहीं होता; ज्ञान द्वारा ही निर्णय होता है। ज्ञान स्वयं ज्ञानरूप हो और विकल्परूप न हो, अर्थात् आत्मसन्मुख हो, वह सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की विधि है। ज्ञान स्वयं ज्ञानरूप होकर आत्मा का अनुभव करता है।
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