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[सम्यग्दर्शन : भाग-3
अहा! आठ वर्ष की ज्ञानी राजकुमारी को भी अन्तर में ऐसा यथार्थ भान होता है; इसलिए अरे! 'हम तो गाँव में पैदा हुए, अल्प बुद्धिवाले हैं और हमारा अधिकांश समय तो व्यापार-धन्धे में चला गया है तो अब हमें ऐसा आत्मा कैसे समझ में आ सकता है ?' - ऐसा मत मान बैठना। सभी समझ सके, वैसा आत्मा है। प्रत्येक आत्मा में पूर्ण ज्ञान-सामर्थ्य भरा है परन्तु नजर अन्तरोन्मुख होना चाहिए। अन्तर में नजर करते ही निहाल कर दे - आत्मा ऐसी वस्तु है। नजर करते ही निहाल हो जाए - ऐसा भगवान आत्मा, चैतन्य का भण्डार है। ___कोई यह मानता है कि अल्प विकासवाली क्षयोपशमदशा, वह क्षायिकभाव का कारण होती है तो वह भी पर्यायबुद्धि अर्थात् व्यवहार की मुख्यतावाला / व्यवहारमूढ़ है। अखण्ड परिपूर्ण आत्मा का आश्रय किये बिना क्षायिकभाव प्रगट नहीं होता।
जिस जिज्ञासु को ऐसा पूरा आत्मा मानना हो, उसे निमित्त और विकार से धर्म मनवानेवाले कुगुरु-कुदेव इत्यादि की सङ्गति छोड़ना चाहिए, उनका आदर और प्रशंसा छोड़ना चाहिए तथा अपनी पर्याय में सच्चे देव-गुरु की प्रशंसा इत्यादि का जो शुभभाव होता है, उस शुभराग में भी सन्तोष नहीं मान लेना चाहिए। उस राग को धर्म का कारण नहीं मानना चाहिए और ज्ञान के वर्तमान पराश्रित विकास की प्रशंसा अथवा अहङ्कार भी छोड़ना चाहिए। यदि वर्तमान विकास को ही सम्पूर्ण स्वरूप मानें तो उसकी प्रशंसा तथा अहङ्कार हुए बिना नहीं रह सकता; अतः जो जीव परिपूर्ण अखण्ड चैतन्यतत्त्व को मानता है, वह जीव, अल्प विकास को
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