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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-3] आत्मार्थी का पहला कर्तव्य (1) भवभ्रमण के मूल का छेदक और मोक्षसुख प्रदायक निश्चयसम्यग्दर्शन कैसे प्रगट हो? प्रथम, धर्म की शुरूआत अर्थात् सम्यग्दर्शन कैसे हो? - उसकी यह बात है। आत्मा में शरीरादि परवस्तुएँ तो है ही नहीं और अवस्था में एक समयमात्र का विकार अर्थात् संसार है, वह भी आत्मा के स्वभाव में नहीं है। सम्पूर्ण चैतन्यवस्तु को एक समय के विकारवाली मानना, वह अधर्म है। आत्मा का स्वभाव तो एक समय में सब जानने की सामर्थ्यवाला है। आत्मा, अनन्त गुणों से परिपूर्ण है, उसमें वर्तमान ज्ञान की अवस्था को अन्तरोन्मुख करके, नित्य स्वभाव के साथ एकरूप करना और पूर्ण चैतन्यद्रव्य को श्रद्धा में स्वीकार करना - इसका नाम धर्म की शुरूआत है। ऐसे परिपूर्ण आत्मा की पहचान करने के लिए कैसी मान्यता छोड़नी पड़ेगी? समस्त विपरीतमान्यताएँ छोड़ना पड़ेगी। जो निमित्त से, विकार से अथवा पराश्रय से धर्म मानते-मनवाते हैं - ऐसे कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र की मान्यता तो सम्यक्त्व के जिज्ञासु को सर्व प्रथम ही छोड़ देना चाहिए और वर्तमान ज्ञान की अपूर्णदशा के आश्रय से कल्याण होता है - यह मान्यता भी छोड़ देना चाहिए। आत्मा में निमित्त इत्यादि परवस्तुओं का अभाव है, क्षणिक विकार का निषेध है और अपूर्ण पर्याय जितना भी आत्मा नहीं है; आत्मा तो अनन्त गुणों से परिपूर्ण है, उसकी श्रद्धा करना ही परमार्थ सम्यग्दर्शन है। Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007770
Book TitleSamyag Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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