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[सम्यग्दर्शन : भाग-3
ज्ञान तो स्वभावभूत है, इसलिए ज्ञान में निःशङ्करूप से अपनेपने वर्तना तो यथार्थ है; ज्ञान वही मैं' - ऐसी जो ज्ञानक्रिया, उसमें विकल्प का आश्रय किञ्चित् भी नहीं है। वह ज्ञानक्रिया तो आत्मा के स्वभावभूत है; इसलिए उसका निषेध नहीं है, उसे आत्मा से पृथक् नहीं किया जा सकता; आत्मा और ज्ञान के बीच जरा भी भेद नहीं किया जा सकता; इसलिए धर्मात्मा, ज्ञानस्वभाव को ही अपना जानता हुआ निःशङ्करूप से उसमें ही वर्तता है। इस ज्ञानस्वभाव में निःशंकरूप से अपनेपने वर्तनेरूप जो ज्ञानक्रिया है, उसमें सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र तीनों समाहित हो जाते हैं; इसलिए इस ज्ञानक्रिया का मोक्षमार्ग में निषेध नहीं की गया है; वह तो स्वीकार की गयी है।
- तो कौन सी क्रिया निषेध की गयी है ? वह अब कहते हैं - जैसे 'ज्ञान, वह मैं' वैसे क्रोधादि भी मैं - ऐसी बुद्धि से, ज्ञान
और क्रोधादि में भेद नहीं जानता हुआ अज्ञानी निःशङ्करूप से क्रोधादि में अपनेपने वर्तता है और क्रोधादि में लीनरूप वर्तता हुआ वह अज्ञानी, मोह-राग-द्वेषरूप परिणमता हुआ कर्म को बाँधता है – इस प्रकार बन्ध का कारण होने से उस क्रोधादि क्रिया का निषेध किया गया है।
देखो, दो क्रियाएँ हुईं – १. ज्ञानक्रिया; २. क्रोधादि क्रिया।
१. 'ज्ञान वह मैं' - ऐसे ज्ञान के साथ एकत्वपरिणमनरूप ज्ञान क्रिया, वह तो स्वभावभूत है।
२. 'क्रोध वह मैं' – ऐसे क्रोधादि के साथ एकत्व परिणमनरूप क्रोधादि क्रिया, वह परभावभूत है।
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