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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
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इस प्रकार ज्ञानज्योति के प्रकाशन द्वारा आचार्यदेव ने इस अधिकार का मङ्गलाचरण किया है।
अब, अज्ञानी जीव की कर्ता-कर्म की प्रवृत्ति कैसी होती है ? यह बात दो गाथाओं में समझाते हैं I
रे आत्म आस्त्रव का जहाँ तक, भेद जीव जाने नहीं । क्रोधादि में स्थिति होय है, अज्ञानि ऐसे जीव की ॥ ६९ ॥ जीव वर्तता क्रोधादि में, तब करम संचय होय है । सर्वज्ञ ने निश्चय कहा, यों बन्ध होता जीव के ॥७०॥ देखो! सर्वज्ञदेव की साक्षी देकर आचार्यदेव बात करते हैं ।
आत्मा, पर से तो अत्यन्त पृथक् है ही; इसलिए पर के साथ तो कर्तापना, अज्ञानी माने तो भी, नहीं हो सकता । अब अन्दर के भाव की बात है। चिदानन्दस्वभाव को भूला हुआ अज्ञानी जीव, क्रोधादि आस्रवभावों में तन्मयरूप से वर्तता हुआ, उनका कर्ता होकर, कर्म बाँधता है।
'जैसे ज्ञान मैं हूँ, वैसे क्रोधादि भी मैं हूँ' इस प्रकार ज्ञान और क्रोध को एकमेकरूप मानकर निःशङ्करूप से क्रोधादि में अपनेपने वर्तता है, वह अज्ञानी जीव, मोहरूप परिणमता हुआ नये कर्मबन्धन में निमित्त होता है।
वस्तुतः ज्ञान तो स्वभावभूत है, इसलिए ज्ञानक्रिया तो अपनी ही है; क्रोधादि तो परभावभूत है, इसलिए वह क्रोधादि की क्रिया निषेध की गयी है परन्तु ज्ञानक्रिया और क्रोधादि क्रिया के बीच की ऐसी भिन्नता को नहीं जाननेवाला अज्ञानी जीव, ज्ञान की तरह क्रोधादि का भी कर्ता होता हुआ नवीन कर्मों को बाँधता है।
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