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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
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कोई शरण नहीं होगा। जो पर का कर्तृत्व मानता है, वह तुझे कहीं शरणरूप नहीं होगा; पर से भिन्न ऐसा तेरा चैतन्यतत्त्व ही तुझे शरणरूप है। उसे तू पहचान। __ इस संसाररूपी नाटक की रङ्गभूमि में जीव और अजीव संयोगरूप से एकमेक जैसे दिखायी देते हैं। अनेक प्रकार के स्वाँग से मानो कि वे एक-दूसरे के कर्ता-कर्म हों, ऐसा लगता है। वहाँ अज्ञानी को उन दोनों के बीच भेद-दिखलायी नहीं देता परन्तु ज्ञानी अपने भेदज्ञान के बल से उन दोनों को भिन्न-भिन्न जान लेता है और भिन्न-भिन्न जानने से वे पृथक् पड़ जाते हैं। __इस जगत् में छह मुनियों की तरह छहों द्रव्य भिन्न-भिन्न हैं; किसी को किसी के साथ कर्ता-कर्मपना नहीं है परन्तु अज्ञानी जीव, मोह से स्व-पर को एकमेकरूप मानता है और पर के साथ कर्ता-कर्म की बुद्धि से वह अपनी प्रज्ञा को (पर्याय को) पर की मानता है; इसलिए वह दुःखी होता है। भगवान की वाणी द्वारा स्व-पर को भिन्न-भिन्न पहचानकर भेदज्ञान करते ही उसे स्वद्रव्य के अनुभव से अतीन्द्रिय आनन्द उल्लसित होता है।
सुदृष्टि तरङ्गिणी में छह द्रव्यों की भिन्नता के सन्दर्भ में छह मुनियों का सरस दृष्टान्त दिया है - जैसे एक गुफा में छह मुनिराज बहुत काल से रहते हैं परन्तु कोई किसी से मोहित नहीं है, उदासीनतासहित एक क्षेत्र में रहते हैं; उसी प्रकार छह द्रव्य एक लोकक्षेत्र में जानना। इस जगत्पी गुफा में जीवादि छह द्रव्य अनादि से अपने-अपने गुण-पर्यायसहित अपने-अपने स्वभाव में रहे हुए हैं । एक जगह उनकी स्थिति है परन्तु कोई एक-दूसरे
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