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________________ www.vitragvani.com 68] [सम्यग्दर्शन : भाग-3 ___ कर्ता-कर्म सम्बन्धी वह अज्ञान कैसे मिटे? उसकी यह बात है। जब जीव, भेदज्ञान द्वारा स्व-पर को भिन्न-भिन्न जानता है, तब स्वद्रव्य में एकता करके वह अपनी सम्यग्दर्शनादि निर्मलपर्याय के कर्तारूप परिणमित होता है और उसके अज्ञान का नाश होता है। ___ 'मेरा आत्मा एक ज्ञायकस्वभाव ही है' – ऐसा जब दृष्टि में लिया, तब क्षणिक विकारभाव अपने स्वभावरूप भासित नहीं होते परन्तु स्वभाव से भिन्नरूप ही भासित होते हैं; इसलिए उस विकार का कर्तृत्व भी नहीं रहता; ज्ञायकस्वभाव के आश्रय से उत्पन्न निर्मलदशा का ही कर्ता होता हुआ, कर्म के साथ के सम्बन्ध का नाश करके वह जीव, सिद्धपद को प्राप्त करता है। यह बात इस कर्ताकर्म अधिकार में आचार्यदेव समझाते हैं। मङ्गलाचरण में सिद्ध भगवन्तों को नमस्कार किया गया है - कर्ताकर्मविभावकू, मेटि ज्ञानमय होय, कर्म नाशि शिव में बसे, तिहें नमू, मद खोय॥ अनादि के अज्ञान से उत्पन्न कर्ताकर्म के विभाव को दूर करके जो ज्ञानमय हुए और कर्म का अभाव करके सिद्धालय में बसे हैं, उन सिद्ध भगवन्तों को मैं मदरहित होकर नमस्कार करता हूँ - इस प्रकार कर्ताकर्म अधिकार के मङ्गलाचरण में सिद्ध भगवन्तों को नमस्कार किया है। बहुत ही विनय से और पर के कर्तृत्व के अभिमान को छोड़कर, मैं सिद्ध भगवन्तों को नमस्कार करता हूँ। भाई ! यह मनुष्यदेह कायम नहीं रहेगी, क्षण में यह बिखर जायेगी... भेदज्ञान करके आत्मा का सुन, भाई! - इसके बिना तुझे Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007770
Book TitleSamyag Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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