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[ सम्यग्दर्शन : भाग - 3
है, क्योंकि 'मुझे अल्प आनन्द है और मुनि को अधिक है' ऐसा विकल्प भी अनुभव में नहीं है । इस प्रकार अनुभव में श्रुतज्ञानी को केवलज्ञानी की भाँति पक्षातिक्रान्त कहा है ।
इस प्रकार अनुभव के लिये मङ्गल उमङ्ग से शिष्य का जो प्रश्न था, उसका आचार्यदेव ने उत्तर कहा है ।
प्रयत्न की दिशा
आत्मा के प्रयत्न के सन्दर्भ में दिशा बतलाते हुए, पूज्य गुरुदेव बहुत गहराई से कहते हैं कि
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आत्मस्वरूप क्या है, इसका निर्णय करने की धुन जागृत होनी चाहिए... सब न्याय से निर्णय करने की लगन लगनी चाहिए... समस्त पहलुओं से अन्दर निर्णय न हो तब तक चैन न पड़े... ऐसे के ऐसे ऊपरी तौर पर चलता नहीं कर देना चाहिए, अन्दर मन्थन कर-करके ऐसा दृढ़ निर्णय करे कि सारा जगत बदल जाये तो भी अपने निर्णय में शङ्का न पड़े। आत्मा के स्वरूप का ऐसा निर्णय करने से वीर्य का वेग उसकी ओर ही ढलता है। अन्तर में पुरुषार्थ की दिशा सूझ गयी, फिर उसे मार्ग की उलझन नहीं होती... फिर तो उसकी आत्मा की लगन ही उसे मार्ग कर | देती है। आगे क्या करना, उसका स्वयं को ही ख्याल आ जाता है... ' अब मुझे क्या करना' - इसकी उलझन उसे नहीं होती है।
अहो! आत्मा स्वयं अपना हित साधने को जागृत हुआ... और हित न साध सके ऐसा हो ही कैसे ? आत्मा का अर्थी होकर आत्मा का हित साधने के लिये जो जागृत हुआ, वह अवश्य आत्महित साधता ही है ।
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