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[सम्यग्दर्शन : भाग-3
है। अरे! विकल्प भी साधन नहीं तो फिर बाहर के कौन से साधन लेना है ? 'मैं शुद्ध परमात्मा सच्चिदानन्द हूँ' – ऐसा विकल्प भी वास्तव में परलक्षी-पराश्रयीभाव है, वह भी अनुभव का साधन नहीं है। श्रुतज्ञान को स्वसन्मुख करना, वह ही एक अनुभव का साधन है। विकल्पातीत होकर चैतन्य का स्वसंवेदन करे, तब श्रुतज्ञानी भी केवली परमात्मा की तरह पक्षातिक्रान्त-विकल्पातीत है, वह भी वीतराग जैसा ही है। ___- जो जीव एकान्त एक नय को पकड़कर नय पक्ष के विकल्प में ही अटकता है परन्तु विकल्प से भिन्न पड़कर ज्ञान को स्वसन्मुख नहीं करता, वह मिथ्यादृष्टि ही रहता है।
-- विकल्प से भिन्न पड़कर स्वसन्मुखरूप से जिसने चैतन्य का अनुभव किया है, प्रज्ञाछैनी द्वारा ज्ञान और विकल्प को पृथक् कर डाला है; उस ज्ञानी को जब निर्विकल्प अनुभव का काल न हो, तब नय पक्ष के जो विकल्प उठते हैं, वह मात्र चारित्रमोह का राग है परन्तु धर्मी को उन विकल्पों के ग्रहण का उत्साह नहीं है। वह विकल्प को साधन नहीं मानता है और उनका वह कर्ता नहीं होता है; उसका ज्ञान, विकल्प से पृथक् का पृथक् परिणमता है।
___- और जब नय पक्ष सम्बन्धी समस्त विकल्पों से पार होकर स्वसंवेदन द्वारा ध्यान में हो तब तो श्रुतज्ञानी भी वीतराग जैसा ही है, अबुद्धिपूर्वक के विकल्प भले पड़े हों, परन्तु उसके उपयोग में किसी विकल्प का ग्रहण नहीं है; निर्विकल्प के अनुभव में अकेले परमानन्द को ही अनुभव करता है। देखो, भाई! आत्मा के अनुभव का यह मार्ग अनादि-अनन्त
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