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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
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पक्षातिक्रान्त हैं। श्रुतज्ञानी की ऐसी आत्मदशा होती है, वही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है।
भाई! निमित्त के आश्रय से लाभ हो, यह बात तो कहीं रह गयी! परन्तु शान्तरस के पिण्ड चैतन्य को अन्दर के शुद्धनय के विकल्प के आश्रय से भी किञ्चित् लाभ नहीं है। साक्षात् चैतन्य को अनुभव करने का मार्ग अन्तर में कोई अलग है, चैतन्यस्वरूप में आरूढ़ होकर शान्तरस के वेदन की दशा में किसी विकल्प का पक्ष नहीं रहता, उसका नाम पक्षातिक्रान्त समयसार है; यही निर्विकल्प प्रतीतिरूप से परिणमित परम-आत्मा है, यही ज्ञानभाव से परिणमित हुआ होने से ज्ञानात्मा है, यही विकल्प से भिन्न चैतन्य ज्योतिरूप है, इसके अनुभव में भगवान आत्मा की प्रसिद्धि है; विकल्प में आत्मा की प्रसिद्धि नहीं थी, उसमें तो आकुलता थी
और अन्तर के निर्विकल्प अनुभव में आत्मा की प्रसिद्धि हुई है। ऐसी अनुभूतिस्वरूप शुद्ध आत्मा है, वही समयसार है।।
अहो! पहले चैतन्य के अनुभव की यह विधि भलीभाँति लक्ष्य में लेकर दृढ़ निर्णय करना चाहिए। मार्ग का सच्चा निर्णय भी न करे, उसे अनुभव कहाँ से होगा? लक्ष्य करके प्रयोग करने पर, परिणमन होता है, यह एक ही अनुभव की विधि है; दूसरी कोई विधि नहीं है। अनादि से नहीं प्राप्त हुआ हो वह इस रीति से ही सम्यग्दर्शन को प्राप्त करता है। इस विधि से नरक में भी जीव, सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है, स्वर्ग में, मनुष्य में, या तिर्यञ्च में भी इसी विधि से सम्यग्दर्शन और आत्म-अनुभव प्राप्त होता है। नरक -स्वर्ग इत्यादि में जातिस्मरण इत्यादि को सम्यक्त्व प्राप्ति का कारण कहा है, वह उपचार से है परन्तु वह नियम से कारण नहीं
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