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[सम्यग्दर्शन : भाग-3
है और ऐसी दशावाला जीव, अन्तर-परिणति में आत्मा को प्राप्त करके ही रहता है। जब तक ऐसा अन्तरपरिणमन न हो, तब तक अपने आत्मार्थ की कचास समझकर अत्यन्त अन्तर्शोध करके आत्मार्थ की उग्रता करता है।
मुमुक्षु की विचारणा... हे जीव! तुझे अन्तर में ऐसा लगना चाहिए कि आत्मा को पहचाने बिना छुटकारा नहीं है, यदि इस अवसर में मैं अपने आत्मा का अनुभव करके सम्यग्दर्शन प्रगट नहीं करूँ तो मेरा कहीं छुटकारा नहीं है। अरे जीव! वस्तु के भान बिना तू कहाँ जायेगा? तुझे सुख-शान्ति कहाँ से मिलेगी? तेरी सुख-शान्ति तेरी वस्तु में से आयेगी या बाहर में से? तू चाहे जिस क्षेत्र में जा, परन्तु तू तो तुझमें ही रहनेवाला है। और परवस्तु, परवस्तु में ही रहनेवाली है। पर में से कहीं से तेरा सुख आनेवाला नहीं है, स्वर्ग में जायेगा तो वहाँ से भी तुझे सुख नहीं मिलनेवाला है; सुख तो तुझे तेरे स्वरूप में से ही मिलनेवाला है... इसलिए स्वरूप को जान। तेरा स्वरूप तुझसे किसी काल में पृथक् नहीं है; मात्र तेरे भान के अभाव से ही तू दुःखी हो रहा है, वह दुःख दूर करने के लिये तीन काल के ज्ञानी एक ही उपाय बतलाते हैं कि 'आत्मा को पहचानो।
इस प्रकार अन्तर विचारणा द्वारा मुमुक्षु जीव अपने में सम्यग्दर्शन की लगनी लगाकर अपने आत्मा को उसके उद्यम में जोड़ता है।
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