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________________ www.vitragvani.com 52] [सम्यग्दर्शन : भाग-3 पूर्व में एक क्षण के लिए भी नहीं की है। राग में तन्मय होकर अज्ञान का ही सेवन किया है, अनात्मा की ही सेवा की है। ज्ञान की सेवा तो तब होती कि जब अन्तर में राग से पृथक् पड़कर ज्ञानस्वभाव को पहचानकर श्रद्धा और अनुभव में ले। ___ मुमुक्षु का मङ्गल अभिप्राय और मङ्गल कामना यह है कि राग से भिन्न ज्ञानस्वभावी आत्मा का सदा सेवन करना, अर्थात् निरन्तर -सतत् अनुभव करना – यही सिद्धि का पन्थ है। आचार्यदेव कहते हैं कि हम आत्मा को निरन्तर चैतन्यस्वरूप अनुभव कर रहे हैं और दूसरे जो सम्यग्दृष्टि हैं, वे भी निरन्तर उसका अनुभव करते हैं। हे मुमुक्षु जीवों! तुम भी आत्मा को सर्व प्रयत्न से जानकर, श्रद्धा में लेकर, उसका अनुभव करो। सम्यक्त्व के लिये किसकी शरण? सम्यक्त्वसन्मुख जीव को अभी अपने भूतार्थस्वभाव के आश्रय से निर्विकल्प वेदन प्रगट नहीं हुआ वहाँ, अहो! यह मेरा आत्मा एकाकार ज्ञायकस्वरूप हूँ, ऐसे बहुमान का विकल्प उसे उठता है परन्तु उस विकल्प की शरण नहीं; शरण तो भूतार्थस्वभाव की ही है और उसकी शरण से ही सम्यग्दर्शन होता है। यदि विकल्प को शरणरूप माने तो उसके अवलम्बन से हटकर, भूतार्थस्वभाव में कैसे आयेगा? और उसे सम्यग्दर्शन कहाँ से होगा... इसलिए विकल्प की शरण नहीं... स्वभाव की ही शरण है। सम्यग्दर्शन के पश्चात् भी ज्ञानी को विकल्प आता है परन्तु ज्ञानी उसकी शरण नहीं लेते हैं। Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007770
Book TitleSamyag Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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