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[ सम्यग्दर्शन : भाग - 3
चिदानन्दस्वभाव में सन्मुखता कराता है। वाह ! भगवान की वाणी ! वाह, दिगम्बर सन्त! वे तो मानो ऊपर से सिद्ध भगवान उतरे हों !! अहा ! भावलिङ्गी दिगम्बर सन्त-मुनि तो अपने परमेश्वर हैं, वे तो भगवान हैं। भगवान श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव, पूज्यपादस्वामी, धरसेनस्वामी, वीरसेनस्वामी, जिनसेनस्वामी, नेमिचन्द्र सिद्धान्त - चक्रवर्ती, समन्तभद्रस्वामी, अमृतचन्द्रस्वामी, पद्मप्रभमलधारिदेव, अकलङ्कस्वामी, विद्यानन्दिस्वामी, उमास्वामी, कार्तिकेयस्वामी -इन सभी सन्तों ने अलौकिक काम किया है।
अहा ! सर्वज्ञ की वाणी और सन्तों की वाणी, चैतन्यशक्ति के रहस्य खोलकर आत्मस्वभाव की सन्मुखता कराती है - ऐसी वाणी को पहचान कर, उसमें क्रीड़ा करने से, उसका चिन्तन -मनन करने से ज्ञान के विशिष्ट संस्कार द्वारा आनन्द का प्रस्फुटन होता है, आनन्द का फब्बारा फुटता है, आनन्द का झरना झरता है । देखो, यह श्रुतज्ञान की क्रीड़ा का लोकोत्तर आनन्द ! अभी जिसे श्रुत का भी निर्णय न हो, वह किसमें क्रीड़ा करेगा ? यहाँ तो जिसने प्राथमिक भूमिका में गमन किया है, अर्थात् देव- शास्त्र - गुरु कैसे होते हैं ? – उसकी कुछ पहचान की है, वह जीव किस प्रकार आगे बढ़कर मोह का क्षय करता है और सम्यक्त्व प्रगट करता है ? - उसकी बात है।
भगवान ने द्रव्यश्रुत में ऐसी बात की है कि जिसके अभ्यास से आनन्द का फब्बारा फूटे। भगवान आत्मा में आनन्द का सरोवर भरा है, उसकी सन्मुखता के अभ्यास से एकाग्रता द्वारा आनन्द का फब्बारा फूटता है। चैतन्य - सरोवर में से अनुभूति में आनन्द का झरना बहता है ।
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