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[ सम्यग्दर्शन : भाग-3
त....त्त्व....च....र्चा
(बांकानेर, चैत्र शुक्ला ८ से १३ की रात्रि - चर्चा में से)
प्रश्न : एक समय में राग और वीतरागता दोनों भाव साथ में होते हैं ?
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उत्तर : हाँ; साधक को आंशिक राग और आंशिक वीतरागता - ऐसे दोनों भाव एक साथ होते हैं। जैसे, सम्यग्दर्शन हुआ, वहाँ आंशिक शुद्धता प्रगट हुई और अभी साधक को अशुद्धता भी है; इस प्रकार आंशिक शुद्धता और आंशिक अशुद्धता – ऐसे दोनों भाव साधकदशा में एक साथ होते हैं परन्तु उसमें जो शुद्धता है, वह संवर-निर्जरा का कारण है और जो अशुद्धता है, वह आस्रव-बन्ध का कारण है; इसलिए साधक को आस्रव-बन्ध-संवर और निर्जरा ऐसे चारों ही प्रकार एक साथ होते हैं।
अहो! यह तो अध्यात्मतत्त्व का अन्तरङ्ग विषय है। यह हिन्दुस्तान की मूल विद्या है।
प्रश्न : जब राग पर लक्ष्य हो, तब तो ज्ञानी को बहिर्मुखता ही है न ?
उत्तर : राग पर भले ही उपयोग का लक्ष्य हो परन्तु उस समय भी अन्दर साधक को रागरहित शुद्धपरिणति तो वर्तती ही है । उपयोग भले ही बाहर में हो, इससे कहीं जो शुद्धपरिणति प्रगट हुई है, उसका अभाव नहीं होता; जितनी शुद्धता है, उतनी अन्तर्मुख परिणति है ।
प्रश्न : सम्यग्दर्शन प्राप्त करना ही है तो उसे क्या करना ? उत्तर : राग और चैतन्य को भिन्न जानकर, चैतन्यस्वभाव में
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