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[सम्यग्दर्शन : भाग-3
परिणाम को' करता नहीं; परद्रव्य के परिणाम, अर्थात् जीव के निर्मल परिणाम, वे पुद्गल की अपेक्षा से परद्रव्य हैं, उन्हें पुद्गल नहीं करता। जीव अपने स्वभावपरिणामरूप परिणमता है और उस परिणाम में वह स्वयं ही व्यापता है; पुद्गल या राग उसमें व्याप्त नहीं होता, इसलिए वे निर्मल परिणाम अजीव का (या राग का) कार्य नहीं है। पुद्गलद्रव्य उसके स्वभावरूप कार्य में व्याप्त होता है। ___ हर्ष-शोक, राग-द्वेषरूप विभाव, वह जीव के स्वभाव का कार्य नहीं है; इसलिए परमार्थ में उसे पुद्गल के स्वभावरूप कार्य कहा है। शुद्धपरिणाम की परम्परा को आगमपद्धति' कहा जाता है, आगमपद्धति स्वभावरूप है और विकार तथा कर्म की परम्परा को 'कर्मपद्धति' कहा जाता है, दोनों धारा ही अत्यन्त पृथक् है। विकार, वह कर्म का स्वभाव है; निर्मल परिणाम, वह जीव का स्वभाव है। विकार, वह जीव का स्वभाव-कार्य कैसे हो? स्वभाव का कार्य स्वभाव जैसा शुद्ध ही होता है। अशुद्धता कहाँ से आयी? तो कहते हैं कि पुद्गल के आश्रय से आयी हुई अशुद्धता पुद्गल का ही स्वभाव है, जीव के स्वभाव में से वह अशुद्धता नहीं आती।
क्षयोपशम सम्यक्त्व में से क्षायिक सम्यक्त्व हुआ, वहाँ वह क्षायिक सम्यक्त्वरूप कार्य, जीव का प्राप्य कर्म है, वह क्षयोपशमभाव का प्राप्य कर्म नहीं। इस प्रकार समस्त गुणों की पर्यायों में समझना। पूर्व की निर्मल पर्याय भी दूसरी निर्मल पर्याय को प्राप्त नहीं करती - तो फिर विकार या निमित्त उस निर्मल पर्याय को प्राप्त करे, यह बात कहाँ रही? शुद्धपर्याय को अशुद्धता के साथ या
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