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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
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चैतन्यपद, वही आत्मा का पद है; विकार, वह आत्मा का पद नहीं है, वह तो अपद है – ऐसे चैतन्य पद को पहचानने पर ही भगवान सर्वज्ञदेव की वास्तविक पहचान होती है। जिनेन्द्रदेव के दर्शन से मिथ्यात्व के टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं - ऐसा शास्त्रों में कहा है परन्तु वह किस प्रकार? भगवान सर्वज्ञदेव का आत्मा अकेला चैतन्यपिण्ड है, राग से रहित है – ऐसा ही अपना आत्मस्वभाव स्वीकार करे तो जिनेन्द्रदेव को देखा कहलाये और तब ही मोह का नाश हो परन्तु राग के साथ आत्मा को एकाकार माने तो उसने भगवान को भी नहीं पहचाना। जो राग से लाभ मानता है, वह भगवान का दर्शन नहीं करता परन्तु राग का ही दर्शन करता है; वह राग को ही देखता है, राग से भिन्न चैतन्य को वह नहीं देखता है।
जीव के शुद्धरत्नत्रय को राग का जरा भी अवलम्बन है ? तो कहते हैं कि नहीं; राग के अवलम्बन से रत्नत्रय होना जो मानता है, वह जीव वास्तव में राग का उपासक है; वह वीतराग भगवान के मार्ग का उपासक नहीं है। जो राग से लाभ मानता है, वह जीव, राग से पृथक् पड़ने का पुरुषार्थ कैसे करेगा? अरे ! राग से चैतन्य की भिन्नता को पहले जाने भी नहीं; वह शुद्ध आत्मा को किस प्रकार श्रद्धा-ज्ञान-अनुभव में लेगा? ज्ञानी तो जानता है कि मेरे शुद्धरत्नत्रय को पर का या राग का किञ्चित् भी अवलम्बन नहीं है; मेरा आत्मा स्वयं ही कर्ता होकर मेरे निर्मल परिणाम को करता है, दूसरा कोई नहीं।
जिस प्रकार ज्ञानी जीव, रागादि परिणाम को या परद्रव्य के परिणाम को करता नहीं; उसी प्रकार पुद्गल भी 'परद्रव्य के
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