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[सम्यग्दर्शन : भाग-3
इतनी बात करते ही तुरन्त ही जिज्ञासु शिष्य को प्रश्न उत्पन्न हुआ कि प्रभो! ऐसे ज्ञानी को किस प्रकार परखना? चैतन्य भगवान जगमगा उठा, उसे किस प्रकार पहचानना? वस्तुतः शिष्य स्वयं ऐसा भेदज्ञान प्रगट करने के लिये तैयार हुआ है; इसलिए मैं भी ऐसा भेदज्ञान किस प्रकार प्रगट करूँ? - ऐसी धगश से उसे प्रश्न उत्पन्न हुआ है।
तब आचार्यदेव उससे कहते हैं कि ज्ञानी अपने ज्ञानमय परिणाम को ही करता है; ज्ञानमय परिणाम का ही कर्तापना ज्ञानी का चिह्न है, वह ज्ञानी की निशानी है। जिस प्रकार बड़े राजा-महाराजाओं को ध्वजा में चिह्न होता है, उस चिह्न से वे पहचाने जाते हैं। ज्ञानी धर्मात्मा तो राजा का भी राजा है, उसकी ध्वजा में कोई चिह्न होगा न? तो कहते हैं कि हाँ; रागादि के अकर्तापनरूप जो ज्ञान-परिणाम, वही ज्ञानी की धर्मध्वजा का चिह्न है; उस चिह्न द्वारा ज्ञानी-राजा पहचाना जाता है और इस प्रकार ज्ञानपरिणाम द्वारा ज्ञानी को पहचाननेवाला जीव स्वयं भी उस काल में ज्ञानस्वरूप होकर, कर्तृत्वरहित होता हुआ शोभित होता है।
इस प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव का चिह्न बतलाया। वाह ! गजब अद्भुत बात की है !! जो जागकर देखे, उसे ज्ञात हो, ऐसा है।.
(समयसार, गाथा ७५ के प्रवचन में से)
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